Monday, November 26, 2012

Whom is Kejriwal kidding?


Whom is Kejriwal kidding?

The other day Arvind Kejriwal declared that his political party, now christened as Aam Aadmi Party (AAP), will have no president. That looked quite odd and funny. But now he has been elected as the Convener of the Party. What does it all mean?
Whether you call the head of the party the president, the chairman or the convener, it amounts to one and the same thing because he/she becomes the head of the outfit. The communist parties in India, whether CPI or CPM, have no president but have just general secretaries. But does that mean that these political parties have no head?
Similarly different political parties have different nomenclature for their main policy-making bodies. Some call them executive committee, others call it core committee or parliamentary board or some office-bearers or the like.
Does Kejriwal wish us to believe that his Aam Aadmi Party is a headless organization? If so, what is the function of the convener? Can anything happen without the consent of the convener? Will his organization have no core committee or policy-making committee? If no, then who will take policy decisions for the organization? Or will it be a one-man or two-man show?
Kajriwal has also said that his party does not aim to capture power. If that is so, what for is the AAP? One wishes to capture power to be able to do himself the things he thinks are best for the nation. Does he mean that he aims at being in power for all the times to come so that he can always be on the wrong side of the government?
Politics, in a way, is art of befooling the people into making them believe what the leaders do not mean or vice versa.
 Since Kajriwal has now floated a political organization, he remains no different. He also seems to be kidding the aam aadmi. 

Saturday, November 24, 2012

सौजन्‍य चुनाव आयोग सरकार मारे मक्खियां जनता के सीने पर


सौजन्‍य चुनाव आयोग
सरकार मारे मक्खियां जनता के सीने पर
-    अम्‍बा चरण वशिष्‍ठ
चुनाव आयोग संविधान द्वारा सृजित एक संस्‍था है जिसे धारा 324 के अन्‍तर्गत देश की लोक सभा, राज्‍य सभा, प्रदेशों की विधान सभाओं व परिषदों और राष्‍ट्रपति व उपराष्‍ट्रपति चुनाव के ''अधीक्षण, निदेशन और नियनत्रण'' का अधिकार व जि़म्‍मा सौंपा गया है।
पिछले लगभग दो दशक से चुनाव आयोग ने देश में स्‍वतन्‍त्र, निष्‍पक्ष व स्‍पच्‍छ चुनाव करवाने का अपना दायित्‍व बड़ी तत्‍परता से निभाया है। उसने उन प्रदेशों में भी शान्तिपूर्ण चुनाव सम्‍पन्‍न करवा दिये जहां चुनाव का खून की होली का पर्व बन जाना एक स्‍वाभाविक रस्‍म बन चुकी थी।
इस उददेश्‍य की प्राप्ति के लिये चुनाव आयोग जो भी कदम उठाये उसकी तो सराहना ही होनी चाहिये और हुई भी है। पर इस उददेश्‍य प्राप्ति में जब आवश्‍यकता से अधिक अति उत्‍साह का प्रदर्शन हो तो उस पर सन्‍देह की उंगली उठ जाना उतना ही स्‍वाभाविक है जितना कि पुलिस का किसी अपराधी से अपना गुनाह कबूल करवाने के लिये तीसरे दर्जे के साधन उपयोग में लाना।
पर इस उददेश्‍य प्राप्ति के बहाने किसी निर्वाचित सरकार को अपने संवैधानिक कर्तव्‍यों के निर्वाहन से अपंग बना देना संविधान या नैतिक मूल्‍यों की कसौटी पर कैसे उचित हो सकता है?
उदाहरण केलिये हिमाचल व गुजरात के चुनावों को ही लीजिये। चुनाव आयोग ने 3 अक्‍तूबर को ही इन दोनों प्रदेशों में चुनाव की घोषणा और चुनाव आचार संहिता के उसी पल से लागू
हो जाने की घोषणा कर इन दोनों सरकारों को अढ़ाई मास से अधिक के समय के लिये पंगू बना कर रख दिया।
होने को तो हिमाचल व गुजरात के चुनाव एक साथ दिसम्‍बर में कुछ दिन आगे-पीछे हो सकते थे। पर कुछ राजनीतिक दलों के अनुरोध पर चुनाव आयोग ने हिमाचल में मतदान 4 नवम्‍बर को ही करवा दिया क्‍योंकि मन्‍शा वहां के तीन जनजा‍तीय विधान क्षेत्रों में मतदान बाकी के 65 क्षेत्रों में साथ ही करवाने की थी। 15 नवम्‍बर के बाद ये क्षेत्र कब बर्फ से ढक जायें और बाकी प्रदेश से उनका सम्‍पर्क टूट जाये यह कहना मुश्किल होता है। इस लिये इस तारीख के बाद मतदान करवाना सम्‍भव नहीं लगता था।
पिछले 2007 के विधान सभा चुनाव की तरह इन तीनों चुनाव क्षेत्रों में मतदान नवम्‍बर में हो जाता और बाकी प्रदेश में दिसम्‍बर में ही हो जाता तो कोई फर्क नहीं पड़ता लगता है। मतगणना एक साथ हुई थी और जनता का फतवा इन तीन क्षेत्रों में भी वही रहा था जो बाकी प्रदेश में रहा हालांकि मतदान की तिथियों में लगभग एक मास का अन्‍तर था।
ऐसा करने का लाभ एक ही था कि जनजातीय क्षेत्रों में तो चुनाव आचार संहिता पहले लागू हो जाती पर शेष क्षेत्रों में सरकार सामान्‍य तौर पर काम करती रहती। बाकी 65 क्षेत्रों में संहिता तब लगती जब वहां भी चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाती। मतगणना पहले की तरह सारे प्रदेश में इकटठी ही होती।
जब सारे देश या किसी प्रदेश में मतदान एक ही दिन करवाने की बात हुई तो तर्क यही दी गई थी कि ऐसा करने से पहले चुनाव हो जाने से बाकी के क्षेत्रों में कोई ग़लत प्रभाव नहीं पड़ेगा। पर अब जबकि विभिन्‍न प्रदेशों में चुनाव अनेक चरणों में सम्‍पन्‍न होने है तो बाकी के क्षेत्रों में मौखिक व अफवाहों व झूठे दावों से इसका सकारात्‍मक या नकारात्‍मक प्रभाव कोर्इ कैसे रोक सकता है?
अब गुजरात में मतदान 13 और 17 दिसम्‍बर को निश्चित है। यह ठीक है कि चुनाव आयोग ने मतदान उपरान्‍त के चुनाव परिणाम के अनुमानों की पूर्व घोषणा पर पाबन्‍दी लगा दी है। पर क्‍या चुनाव आयोग 13 दिसम्‍बर के मतदान के बाद मौखिक दावों व अफवाहों को 17 दिसम्‍बर को होने वाले चुनावों में होने वाले सुप्रभाव व कुप्रभाव को रोक पायेगा क्‍योंकि चुनाव अभियान के दौरान तो किसी भी पार्टी व उम्‍मीदवार को यह दावा करने का पूरा कानूनी हक है कि जिन विधान सभा क्षेत्रों में मतदान सम्‍पन्‍न हो चुका है वहां वह भारी बहुमत से विजय प्राप्‍त कर चुके हैं  
हिमाचल के 4 नवम्‍बर व गुजरात के 13-17 दिसम्‍बर मतदान की गणना 20 दिसम्‍बर को एक साथ एक दिन केवल इस लिये रखी गई है कि हिमाचल के चुनाव परिणाम का गुजरात के मतदाता पर किसी प्रकार का प्रभाव न पड़े। पर गुजरात के चुनाव अभियान के दौरान तो सभी दल सार्वजनिक रूप से व मौखिक रूप से अफवाहें तो फैला ही सकते हैं कि प्रथम चरण के मतदान में वह भारी बहुमत से चुनाव जीत गये हैं और सरकार उनकी ही बनेगी।
न तो राजनीतिक दलों के दावे व अफवाहें और न मतदान उपरान्‍त के आंकलन व पूर्वानुमान पत्‍थर पर लकीर होते हैं पर फिर भी यदि इस कारण 10-15 प्रतिशत मतदाता भी उस पर विश्‍वास कर लें या भ्रमित हो जायें और हज़ार-दो हज़ार मत भी इधर-उधर हो जायें तो कोई भी जीत या हार सकता है क्‍योंकि 25-30 प्रतिशत सीटों पर जीत-हार तो इतने ही बहुमत से हो जाती है। इस प्रकार मतदान विभिन्‍न चरणों में करवा कर मतगणना एक ही दिन करवाने का तो उददेश्‍य ही विफल हो जाता है।
उधर हिमाचल में मतदान तो हो गया पर मतगणना होगी 20 दिसम्‍बर को लगभग सात सप्‍ताह के रिकार्ड अन्‍तर के बाद। इस बीच प्रदेश में आचार संहिता लागू है जिस कारण पूरी सरकार केवल मक्खियां ही मार सकती है पर जनता का कोई काम नहीं कर सकती जिसके लिये उसे जनता ने चुना है और उसकी संवैधानिक अवधि अभी बाकी है। इस कारण जनता के गाढ़े पसीने की कमाई बर्बाद हो रही है क्‍योंकि चुनाव आयोग का फरमान है कि मन्‍त्री, विधायक, सरकारी अधिकारी व कर्मचारी अपना वेतन व भत्‍ते तो ले सकते हैं पर कोई सार्वजनिक जनकल्‍याणकारी काम नहीं कर सकते जिसके लिये उन्‍हें सब कुछ मिल रहा है।
हिमाचल में मतदान 4 नवम्‍बर को हो चुका है और जनता का निर्णय मतदान मशीनों की कैद में है। हिमाचल सरकार अब कुछ भी करे वह जनता के निर्णय को प्रभावित नहीं कर सकती। पर चुनाव आयोग की हेकड़ी है कि वह संविधानिक रूप से चुनी हुई सरकार को शेष समय में अपने संविधानिक कर्तव्‍यों का निर्वाहन नहीं करने दिया जायेगा।
चुनाव आयोग इस स्थिति पर अवश्‍य विचार करना चाहिये?

Wednesday, November 21, 2012


हास्‍य-व्‍यंग
भ्रष्‍टाचार के दानव से डेंगू मच्‍छर केजरीवाल का महायुद्ध

बेटा:     पिताजी।
पिता:    हां, बेटा।
बेटा:     अरविन्‍द केजरीवाल ने कहा है कि मैं एक डेंगू मच्‍छर
हूं । मैं भाजपा व कांग्रेस दोनों को ही काटूंगा और वह
मुश्किल में पड़ जायेंगे ।
पिता:    बेटा, वह बहुत समझदार व जुझारू व्‍यक्ति हैं । मैं तो
उनका कायल हूं।
बेटा:     पर पिताजी, मच्‍छर तो हर किसी को काट खाता है –
मुझे भी, आपको भी, कसूरवार को भी और निर्दोष को भी।  
पिता:    बेटा, वह समझदार महानुभाव हैं। उन्‍होंने जो कुछ भी कहा सोच-समझ कर ही किया होगा।
बेटा:     पिताजी, इस प्रकार डेंगू तो सब को परेशान करेगा और लोग केजरीवाल से भी परेशान हो उठेंगे।
पिता:    बेटा, ऐसा नहीं होगा।
बेटा:     पिताजी, भ्रष्‍टाचार के विरूद्ध लडाई तो कोई सशक्‍त व्‍यक्ति ही लड़ सकता है और कामयाब हो सकता है।
मच्‍छर तो एक कमजोरी का प्रतीक है। लोग आम कहते फिरते हैं कि मैं तुम्‍हें मच्‍छर की तरह मसल डालूंगा।
पिता:    बेटा, वह बहुत धैर्यवान व्‍यक्ति हैं। उन में बहुत ताकत है। वह ऐसे डांवाडोल नहीं हो सकते।
बेटा:     पर पिताजी, डेंगू मच्‍छर से अपनी तुलना उनके विरोधियों ने नहीं उन्‍होंने स्‍वयं की है।
पिता:    यह तो ठीक है।
बेटा:     भ्रष्‍टाचार के विरूद्ध लड़ाई तो एक दिन की लड़ाई नहीं है। यह तो सालों-दशकों तक चलेगी। उसके लिये योधा तो शक्तिमान व धैर्यवान ही होना चाहिये।
पिता:    तो बेटा, केजरीवाल ऐसे ही व्‍यक्ति हैं।
बेटा:     पर उन्‍होंने तो अपनी तुलना डेंगू मच्‍छर से कर रखी है।
पिता:    उससे क्‍या फर्क पड़ता है?
  
बेटा:     फर्क तो पड़ता है। मच्‍छर की आयु बहुत अल्‍प होती है – दस दिन से लेकर एक मास तक। तो मच्‍छर के रूप में केजरीवाल इतना बड़ा काम इतने कम समय में कैसे पूरा कर लेंगे?

पिता:    बेटा, यह बात तो तू केजरीवाल से ही पूछ।