Wednesday, March 30, 2016

हास्‍य-व्‍यंग — मानव कर्तव्‍य: पशु अधिकार संरक्षण

हास्‍य-व्‍यंग
कानोंकान नारदजी के
मानव कर्तव्‍य: पशु अधिकार संरक्षण

बेटा:  पिताजी।
पिता:  हां, बेटा।    
बेटा:   मानव सभ्‍यता ने पिछली कई सदियों में बहुत क्रान्तिकारी विकास किया है
पिता:  बिलकुल ठीक। पहले तो बेटा, मानव अपने घर पर ताला भी नहीं लगाता था। किवाड़ भी बन्‍द     नहीं करता था न पुलिस थी न चौकीदार। फिर भी न चोरी होती थी और न व्‍यक्ति की जान को कोई खतरा। 
बेटा:   पर अब ऐसा क्‍यों नहीं है? पिताजी, क्‍या आज आप अपने घर का दरवाज़ा खुला रखने की जोखिम उठा सकते हैं? बाहर जाओ तो मोटा ताला भी सम्‍पत्ति की सुरक्षा की गारंटी नहीं है।
पिता:  बेटा, ठीक ही तो कहते हैं कि ताला तो साधों के लिये होता है चोरों के लिये नहीं।  
बेटा:   तो फिर पिताजी, हम क्‍यों कहते फिरते हैं कि सभ्‍यता का बहुत विकास हुआ है?
पिता:  बेटा, सब कहते हैं, इसलिये हम भी कह देते हैं।  
बेटा:   मतलब हम अपना दिमाग़ नहीं लगाते और यथार्थ की अनदेखी कर यूं ही हां-में-हां मिला देते हैं।
पिता:  ऐसा ही समझ लो बेटा। इस बात का तो मेरे पास कोई जवाब नहीं है। पर अन्‍य कई विधाओं में मानव ने अवश्‍य ही बहुत विकास किया है।
बेटा:   जैसे?
पिता:  बहुत सारी सामाजिक कुरीतियां समाप्‍त हो गई हैं। जनतन्‍त्र आ गया है। विचार व     अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता मिल गर्इ है। महिलाओं को बहुत सारे अधिकार दे दिये गये
हैं।
बेटा:   पिताजी, अधिकार तो अब पशुओं को भी मिल गये हैं।
पिता:  यह तूने ठीक याद कराया। आखिर बेटा, सामाजिक शास्‍त्र भी तो मानव को एक
सामाजिक पशु ही मानता है। अधिकार तो इन बेज़ुबानों के भी होने चाहियें न।
बेटा:   हां पिताजी। पशुओं में भी हमारी तरह जान होती है।
पिता:  बेटा, पहले पशुओं पर बहुत अत्‍याचार होते थे। उसे देखकर तो पत्‍थर से पत्‍थर दिल भी दहल
उठता था, पिघल जाता था। पर अब शुक्र है कि मानव सभ्‍यता के विकास के साथ पशु जीवन भी जीने योग्‍य हो उठा है। यही कारण है कि मानव तो आज भी किसी न किसी बात पर दु:खी हो कर आत्‍महत्‍या कर बैठता है पर पशुओं का जीवन इतना सुलभ व सहज बना दिया गया है कि वह कभी ऐसा पाप नहीं करते।
बेटा:   सब से क्रान्तिकारी कायापलट तो कुत्‍ते के जीवन में हुआ है। वह चाहे पालतू हो या आवारा। किसी भी व्‍यक्ति को देखकर उसपर भौंकना या उसकी टांग पकड़ कर काट खाना, सब उसका मौलिक पशु अधिकार है। उसे कोई नहीं छीन सकता। सारे ब्रह्माण्‍ड में कोई चुनौति नहीं दे सकता। यहां तो शायद भगवान् भी आपको कोई न्‍याय दिला पाने में अपने हाथ खड़ कर देंगे क्‍योंकि कुत्‍ता भगवान् को ही कह देगा कि मुझे आप ही ने तो ऐसा बनाया है। फिर मेरा क्‍या कसूर है?
पिता:  भगवान् के पास तो सचमुच ही इसका उत्‍तर नहीं होगा।
बेटा:   यदि कोई कुत्‍ता किसी पर सिर्फ भौंकता है और काटता नहीं, वह तो उसकी मेहरबानी है। यदि वह काट खाये तो लोग उल्‍टे उसे ही दोषी करार दे देंगे। कहेंगे — जब तुमने कुत्‍ता देखा तो तुम्‍हें सावधानी बर्तनी चाहिये थी न। कोई नहीं, पालतू है। समय-समय पर उसे टीके लगते रहते हैं। चिन्‍ता मत करो, कुछ नहीं होगा।
पिता:  बेटा, यह तो आधुनिक जीवन का यथार्थ है। कुत्‍ता यदि आवारा हो तो भी लोग बोलते मिलते हैं — कोई नहीं। टीके लगवा लो।      
बेटा:   पर पिताजी, यह सारी सहानुभूति लोग तब तक ही ज़ाहिर करते हैं जब तक कि आपने उसपर जवाबी वार नहीं किया। आपने उसे डंडा नहीं मारा। उस पर पत्‍थर नहीं फैंका। कुत्‍ता तो गुस्‍से में आकर आपको काट सकता है। पर आप तो मानव हैं। आपको गुस्‍सा नहीं आना चाहिये। यदि आपने पीड़ा से कराहते हुये गुस्‍सा खा लिया और अपने पर आक्रमणकारी कुत्‍ते को लाठी या किसी और चीज़ से पीट दिया, तो सभी आपको ही कोसेंगे — वह तो जानवर है पर आप तो मानव हैं। आपको तो अपने आप में रहना चाहिये और इस बेज़ुबान पर अत्‍याचार नहीं करना चाहिये था।
पिता:  पर बेटा, इतना याद रखना, तुम उस पर प्रतिकार नहीं कर सकते। यदि तुमने कुत्‍ते को डण्‍डे से पीट डाला या पत्‍थर मार कर घायल कर दिया तो यह एक अपराध है। तुम्‍हें सज़ा हो सकती है। 
बेटा:   पर पिताजी, हमारे भी तो कई मानवाधिकार हैं। संविधान में हर व्‍यक्ति की जान व माल की सुरक्षा का अधिकार दिया  है। यदि कोई व्‍यक्ति मुझे गाली दे या मेरी गाल पर एक चपत जड़ दे तो यह भी तो एक अपराध है। मुझे किसी से अपनी जान को खतरा हो तो यह मेरा अधिकार है कि मैं पुलिस को शिकायत कर दूं। पुलिस उसके विरूद्ध कार्रवाई करेगी।
पिता:  अवश्‍य करेगी।
बेटा:   पर पिताजी, यदि कोई कुत्‍ता मुझे रोज़ डराता हो और मुझे डर हो जाये कि वह कहीं मुझे काट न ले, तो मैं पुलिस को शिकायत तो कर सकता हूं न।
पिता:  बेटा, शिकायत तो तू अवश्‍य कर सकता है पर पुलिस तुम्‍हारा मज़ाक ही उड़ायेगी। यदि कुत्‍ता काट भी ले तो भी सुलह-सफाई की ही बात होगी क्‍योंकि भारतीय दण्‍ड संहिता में यह कोई अपराध नहीं है।
बेटा:   वैसे पिताजी, यदि कुत्‍ता भैंकेगा नहीं, काटेगा नहीं, तो करेगा क्‍या? यही दो तो उसकी नियति है और मौलिक अधिकार।
पिता:  बेटा, भारत में अभिव्‍यक्ति की पूरी स्‍वतन्‍त्रता है। हम तो देश का बुरा सोचने वालों और उसकी बर्बादी के नारे लगाने वालों की स्‍वतन्‍त्रता का भी सम्‍मान करते हैं। तो भला कुत्‍तों को भौंकने से इस देश में कौन रोकेगा? बह तो बेज़ुबान हैं।
बेटा:   पर पिताजी, कुत्‍ता काट भी तो लेता है।
पिता:  उसकी इस उच्‍छृंखलता पर कोई लगाम नहीं कस पाया है। हर कुत्‍ता चाहे वह पालतू हो या आवारा वह प्रतिदिन अपनी मर्जी के अनुसार जिसको चाहे काट लेता है। वह तो कई बार उसको भी नहीं बख्श्‍ता जिसको उसके मालिक ने सादर आमन्त्रित किया हो। 
बेटा:   तो पिताजी, यह अपराध नहीं है?
पिता:  बेटा, अपने अधिकार का उपभोग करना अपराध नहीं होता।
बेटा:   तो उसका क्‍या जिसे कुत्‍ते ने काट खाया?
पिता:  उसे तो बेटा यही सलाह दी जाती है कि घबराओ मत, जैकी को टीके लगे हैं।
बेटा:   जैकी कौन?
पिता:  बेटा, उनका कुत्‍ता। उसे कुत्‍ता न कह बैठना। उसका मालिक व तुम्‍हारा दोस्‍त–रिश्‍तेदार
तुम से नाराज़ हो उठेगा। उसे कुत्‍ता कहना उन्‍हें ऐसे लगता है जैसे कि किसी ने उन्‍हें ही गाली दे दी हो।
बेटा:   जब गली का आवारा कुत्‍ता काट जाता है तो?
पिता:  तो भी डाक्‍टर कहता है कि पेट में तीन टीके लगवा लो और कुत्‍ते का ध्‍यान रखना 15
      दिन-एक मास में मरना नहीं चाहिये।
बेटा:   मतलब एक ओर तो कुत्‍ते से कटे और ऊपर से उसकी सुरक्षा के लिये गली में पहरा दे।
पिता:  बेटा, अपनी जि़न्‍दगी प्‍यारी है तो उसे यह सब कुछ तो करना पड़ेगा। लोग तो नहीं करेंगे।
बेटा:   पिताजी, कुत्‍ता चाहे पालतू हो या आवारा, वह सड़क पर, गली में या हमारे घर में भी
जहां उसका दिल करेगा बैठ जायेगा, सो जायेगा। यह उसका अधिकार है। वह कोई मानव तो है नहीं कि आप उसे टोक देंगे, डांट देंगे कि कहां सो गये हो? यह कोई तेरे बाप की जगह है जो तुमने लोगों के आनेजाने का रास्‍ता ही रोक रखा है।
पिता:  हां, लोग ऐसा डायलॉग तो आम मार देते हैं।
बेटा:   पर पिताजी, कोई बेचारा पैदल यार-दोस्‍त से गप्‍प लड़ाता जा रहा हो या मोबाईल पर अपनी दोस्‍त से मीठी-मीठी बातें करता जा रहा हो और अनजाने में कुत्‍ते की पूंछ या टांग पर उसका पांव आ जाये तो कुत्‍ता एक दम उसे काट खाता है।
पिता:  बेटा, यह तो कुत्‍ते की प्रकृति है। इसका ध्यान तो व्‍यक्ति को ही करना पड़ेगा। जब
उसके इस मौलिक अधिकार पर अतिक्रमण करोगे तो वह ऐसा तो करेगा ही। वह इनसान तो है नहीं जो मानव की तरह पुलिस और अदालत के चक्‍कर का काटता फिरे। अन्‍त में यह भी गारंटी नहीं कि उसे न्‍याय मिल ही जायेगा। कुत्‍ता तो न्‍याय व सज़ा तुरन्‍त उसी समय दे देता है।
बेटा:   हां पिताजी, याद आया। आजकल पशु के प्रति महान् अत्‍याचार का मामला मीडिया की सुर्खियों में है। आपने देखा है?
पिता:  हां बेटा। मैंने भी देखा है। बताया जा रहा है कि एक विरोध प्रदर्शन के दौरान एक विधायक ने पुलिस के घोड़े की टांग पर लाठी मार दी जिससे घोड़े की टांग बुरी तरह ज़ख्‍मी हो गई। वह गिर गया। उसकी टांग को पट्टी करनी पड़ी। बाद में तो टांग ही काटनी पड़ी। घोड़े की जान भी खतरे में बताई जा रही है।
बेटा:   विधायक को गिरफतार कर 14 दिन की न्‍यायिक हिरासत में भेज दिया गया है। यह अभी स्‍पष्‍ट नहीं हो पाया है कि यदि घोड़े की मृत्‍यु हो गई तो क्‍या आरोपी के विरूद्ध धारा 302 के अन्‍तर्गत मुकद्दमा चलाया जायेगा।
पिता:  बेटा, उसका जुर्म इतना संगीन है कि देशद्रोह के आरोप में गिरफतार विद्यार्थियों को तो लगभग 14 दिन में ज़मानत मिल गई पर उन्‍हें तो विधान सभा में अपने मत के वैधानिक अधिकार के उपयोग से भी वंचित कर दिया गया। विधायक के विरूद्ध मामला तो ठीक ही चलाया जा रहा लगता है।
बेटा:   कई महानुभाव इस कठोर पग के पक्ष में खड़े हो गये हैं।
पिता: ठीक भी है। आखिर विरोध प्रदर्शन के समय लाठी बरसाने का अधिकार तो पुलिस का ही होता है। उसमें कोई भी ज़ख्‍मी हो सकता है। पुलिस के हाथों प्रदर्शन के दौरान किसी विधायक महोदय की टांग भी टूट सकती है। पर प्रदर्शनकारी कैसे लाठी उठा सकते हैं और किसी को मार सकते हैं और वह भी पुलिस के घोड़े को?
बेटा:   बात तो आपकी ठीक है। घोड़ की दुलत्‍ती से तो किसी का हाथ-पांव या जबड़ा टूट सकता है। इसीलिये कहते हैं न कि घोड़े की पिछाड़ी से बचो। पर विधायक महोदय ने तो कानून ही अपने हाथ में ले लिया।
पिता:  यह तो उन्‍होंने गलत किया।
बेटा:   पिताजी, आज आपने टीवी पर समाचार देखा। पश्चिमी बंगाल के एक शहर में कुछ हाथी रास्‍ता भटक कर आ गये। वह इतने आग-बबूला हो गये कि उन्‍होंने चार निर्दोष लोगों को ही पटक-पटक कर मार डाला। इन हत्‍याओं के लिये किस को सूली पर चढ़ाया जायेगा?
पिता: बेटा, कानून मानव के लिये है पशु के लिये नहीं।
बेटा:  यह तो कोई न्‍याय न हुआ कि यदि मानव करे तो दोषी और पशु करे तो निर्दोष।।

पिता:  बेटा, याद रखना। मानव दयालू-कृपालू है। वह सदा दूसरों की चिन्‍ता पहले करता है। पशु तो बेजान हैं। उन पर दया करना मानव का पहला कर्तव्‍य है। मानव को पहले अपना कर्तव्‍य निभाना चाहिये। अपनी चिन्‍ता बाद में करनी चाहिये। इसीलिये हमने अपने अधिकार गौण कर दिये हैं और पशु अधिकार सर्वो‍परि बना दिये हैं।                                  ***

Tuesday, March 29, 2016

हास्‍य-व्‍यंग — दिल की बातें दिल ही जाने

हास्‍य-व्‍यंग
कानोंकान नारदजी के
दिल की बातें दिल ही जाने

ईश्‍वर महान् है। उसका दिल भी उतना ही महान् है। वह सब पर कृपा करता है, सब का ध्‍यान रखता है। उसी ने इस संसार की रचना की। उसी ने यह मानव शरीर बनाया। उसी ने मानव के शरीर में दिल भी बसाया। ईश्‍वर की महिमा अपरम्‍पार है। उसकी वह ही जानता है। पर यह समझ नहीं आता कि जब उसने मानव को दिल दिया तो उसने उसे इतना जटिल और रहस्‍यमयी क्‍यों बना दिया। ऐसा लगता है कि ईश्‍वर को जान लेना व उसे पहचान लेना आसान है पर दिल की थाह लेना लगभग सम्‍भव नहीं है।
आज विज्ञान बहुत तरक्‍की कर चुका है। अब तो दिल का आप्रेशन हो जाता है। उसका इलाज हो जाता है। व्‍यक्ति में नया दिल डाल दिया जाता है। पर विज्ञान भी अभी तक यह थाह नहीं लगा पाया कि आखिर दिल है क्‍या। किस चीज़ का बना है।
वह कब क्‍या कर बैठे इसका भी कोई अनुमान नहीं लगा सकता। इसकी भविष्‍यवाणी नहीं कर सकता। आज विज्ञान यह तो भविष्‍यवाणी कर देता है, चेतावनी दे देता है कि देश-प्रदेश के किस भाग में वर्षा होने वाली है, तापमान घटेगा या बढ़ेगा, सुनामी या तूफान आयेगा या नहीं। पर कोई वैज्ञानिक इस बात की भविष्‍यवाणी करने में असफल रहा है कि किसी के दिल में कब तूफान आ जायेगा, कब शान्‍त हो जायेगा, कब उसका तापमान बढ़ या घट जायेगा। दिल में दौरा कब पड़ जायेगा, यह भी कोई नहीं बता सकता।
वास्‍तव में अभी तक यह कहना भी मुश्किल है कि दिल आखिर है किस वस्‍तु या धातू का बना। यही कारण है कि कोई कहता है कि उसका दिल शीशे का बना है जो बहुत जल्‍दी टूट जाता है। आपने फिल्‍म का गाना तो सुना ही होगा कि शीशा हो या दिल आखिर टूट जाता है। यह भी कहते हैं कि इस दिल के टुकड़े हज़ार हुये, कोई इधर गिरा, कोई उधर गिरा। यह अलग बात है कि हमें कहीं गली या सड़क में दिल का टुकड़ा पड़ा नहीं मिला। आपको मिला हो तो मुझे ज़रूर बताना। मैं ज़रूर देखना चाहता हूं।
हमने यह भी सुना है कि दिल कमज़ोर भी होता है और ठोस भी। कहते हैं कि उसका दिल पत्‍थर का बना है। कई तो कहते हैं कि यह लोहे व स्‍टील का है। यही कारण है कि किसी को चाहे कुछ हो जाये पर इन पत्‍थर दिल इन्‍सानों को कुछ नहीं होता।
कईयों का दिल नर्म भी होता है। वह जल्‍दी ही छोटी सी बात पर भी पिघल जाता है। तभी तो आपको कई कहते मिलेंगे कि उसका दिल मोम से बना है। यही कारण है कि वह थोड़ी सी तपस से भी पिघल जाता है।
फिर दिल है भी बड़ी नाज़ुक चीज़। वह जल्‍दी ही फिसल जाता है। जल्‍दी ही प्‍यार हो जाता है और बाद में जल्‍दी ही पछताना भी पड़ जाता है। बात रोने-धोने तक पहुंच जाती है।
दिल पर लोग चोट भी जल्‍दी कर देते हैं। उसके लिये चाकू या खंजर की आवश्‍यकता नहीं होती। दिल बातों से भी घायल हो जाता है। यह ज़ख्‍म ऐसा गहरा होता है कि वह कई बार तो कभी भर ही नहीं पाता।
कई लोग तो ऐसे होते हैं जो दिल हथेली में रखकर घूमते फिरते हैं। ज्‍योंहि कोई हसीन मिला वह उसे दिल दे बैठते हैं। इस काम में माहीगिरी भी होती है। दूसरे को पता ही नहीं चलता कि किसी ने उसे दिल दे दिया है। वे लोग दिलफैंक आशिक के रूप में भी जाने जाते हैं।
सैंकड़ों साल पहले सिक्‍कों का चलन नहीं था। तब व्‍यापार को बटांदरा कहते थे — एक वस्‍तु के बदले में दूसरी चीज़ ले ली जाती थी। उसी पद्धति पर दिलों के बटांदरे का चलन आज भी है। एक व्‍यक्ति अपना दिल अपनी प्रेमिका को और प्रेमिका अपने प्रेमी को दे देता है। दोनों को बड़ा सकून मिलता है पर बेचैनी भी रहती है। कई बार शक हो जाता है कि कोई उस दिल का दुरूपयोगा न कर ले। यह दिल की अदला-बदली दो व्‍यक्ति स्‍वयं  ही कर लेते हैं या अपने-आप ही हो जाती है। इसमें न तो किसी डाक्‍टर की आवश्‍यकता पड़ती है और न ही किसी आप्रेशन की।
कई बार तो अनायास ही अनजाने में दिल गुम भी हो जाता है। किसी को पता ही नहीं चलता कि कहां गया, किसके पास चला गया।
दो दिल मिल कर एक भी हो जाते हैं। कई बार शरीर तो दो होते हैं पर दोनों में दिल एक होता है। दो दिलों में दिल एक साथ भी धड़कता है।
दिल तो चाहे छोटा हो या बड़ा, पर इतनी बात तय है कि उसमें इतनी खुली जगह होती है कि व्‍यक्ति के सारे प्‍यारे लोग उसमें समा सकते हैं, उसमें बड़े आराम से रह सकते हैं। यही तो कारण है कि कई प्रेमी एक दूसरे को कहते फिरते हैं कि तुम तो मेरे दिल में रहते हो।
हनुमानजी भगवान् राम के अनन्‍य भक्‍त थे। एक बार तो उन्‍होंने सब को अपना दिल चीर कर दिखा दिया था कि भगवान् राम उनके दिल में बसते हैं। इसी की नकल कर कई प्रेमी व अन्‍य आपको कहते मिल जायेंगे कि हमारा दिल चीर कर देख लो, उसमें तुम्‍हीं दिखोगे।
दिल के टुकड़े तो अवश्‍य होते हैं। जब कोई व्‍यक्ति दूसरे को बहुत प्‍यार करता है तो वह उसे समझाता है कि तू तो मेरे दिल का टुकड़ा है। माता-पिता भी अपने बच्‍चों को यही कहते हैं।
वैसे तो दिल ऐसी चीज़ है कि जब तक वह जि़न्‍दा है तब तक ही जान होती है और तब तक व्‍यक्ति में सांस रहती है। जब दिल काम करना बन्‍द कर देता है तो व्‍यक्ति जीवित नहीं रहता। कई महानुभाव अपने आपको जि़न्‍दा दिल इन्‍सान बताते फिरते हैं।
दिल छोटा भी होता है और बड़ा भी। हम ने प्राय: देखा है कि लोग कह देते हैं कि उसका दिल बहुत छोटा है। या उसका दिल बड़ा है। यदि व्‍यक्ति आपकी मदद कर दे तो उसका दिल बड़ा, न करे तो छोटा।
इसी प्रकार कई लोग शेखी बघारते हैं कि वह शेर दिल इन्‍सान है। पर एक चैनल के प्रोग्राम में बताया गया था कि शेर दहाड़ता तो बहुत है पर उसका दिल आकार में बहुत छोटा होता है। इस लिये उस प्रोग्राम वाले ने कहा कि यदि आगे के लिये कोई अपने आपको शेरदिल होने का दावा करे तो समझ लो कि उसका दिल छोटा है। उसने यह भी सलाह दी कि आगे के लिये अपना शेरदिल होने का दावा भी न करना।
अपने दिल को सम्‍भाल कर भी रखना चाहिये क्‍योंकि दिल की चोरी भी हो जाती है। ऐसी घटनायें आपने कहानी-उपन्‍यास, कविताओं और फिल्‍मों में पढ़ी और देखी होंगी। पर यह समझ नहीं आता कि अब तक बैंकों को क्‍यों नहीं सूझी कि वह बैंकों में दिल केलिये लॉकर रखने का प्रावधान कर दें। इससे बैंकों को आमदनी भी होगी और लोगों के दिल सुरक्षित रहेंगे। दिल के चोरी होने की घटनायें भी कम हो जायेंगी।
अभी तक किसी डाक्‍टर ने यह तो नहीं बताया कि दिल कितना गहरा होता है पर अक्‍सर आपको लोग दिल की गहराइयों से धन्‍यवाद देते ज़रूर मिलेंगे।
विज्ञान ने प्रगति तो बहुत की है। मानव चांद व मंगल तक पहुंच गया है। उसने किसी का दिल दूसरे के दिल में ट्रांस्‍पलांट करने की क्षमता हासिल कर ली है पर अभी तक टूटे दिल को जोड़ने की कोई गोंद ईजाद नहीं कर सका। दिल के घाव भरना तो दूर विज्ञान अभी तक उस पर लगाने के लिये कोई मरहम ही नहीं बना पाया है जिससे कि घायल दिल की पीड़ा कम हो सके।

हैरानी की बात तो यह है कि एक ओर तो हम मानवाधिकार संरक्षण की बात बहुत करते हैं पर हमारी सरकारें अभी तक दिल को सुरक्षित रखने के लिये कोई ठोस उपाय करने में विफल रही हैं। अंग्रेज़ों ने हमें भारतीय दंड संहिता दी पर उन्‍होंने दिल तोड़ने पर कोई सज़ा का प्रावधान नहीं रखा। दिल की चोरी को कोई अपराध नहीं माना। पर अब तो भारत स्‍वतन्‍त्र है। हमारी सरकार दंड संहिता में दिल की चोरी को अक्षम्‍य अपराध क्‍यों घोषित नहीं करती? यदि हम ऐसे व्‍यक्तियों को सख्‍त से सख्‍त सज़ा देने की बात करते हैं जिनके कारण कोई आत्‍महत्‍या करने पर मजबूर हो बैठता है तो दिल तोड़ने वालों के विरूद्ध पुलिस कार्रवाई क्‍यों नहीं करते? कई बार तो व्‍यक्ति इसी कारण आत्‍महत्‍या कर बैठता है कि किसी ने उसका दिल तोड़ दिया। अंग्रेज़ तो चाहते थे कि हम भारतीयों के दिल टूटें पर अब तो हमारी अपनी सरकार है। उसे तो हमारे दिलों को टूटने से बचाना चाहिये और अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देनी चाहिये।                                                                           *** 


सौजन्‍य हिन्‍दी साप्‍ताहिक ''उदय इण्डिया''

Saturday, March 19, 2016

No CCTVs in dance bars— SEEKING DARKNESS OF PRIVACY IN THE GLARE OF A PUBLIC PLACE


No CCTVs in dance bars
SEEKING DARKNESS OF PRIVACY IN THE GLARE OF A PUBLIC PLACE

By Amba Charan Vashishth


The Supreme Court order on March 02, 2016 forbade CCTV monitoring of the performance area in dance bars in Mumbai as it would be a violation of privacy. Cameras will only be allowed at the entry and exit points of the bars, the court directed. The verdict does have raised eyebrows among a section of the people.  

For all intents and purposes, a hotel, a guest house or a dance bar are all public places where anybody can enter and get a room by paying the prescribed fee or rent. In the same manner any person can enter dance bars by paying the desired fee as one can enter a cinema house by purchasing a ticket. In a cinema house too, the management and owner does not enjoy unrestrained liberty to screen a film which has not been certified by the Film Censor Board. Otherwise, it is a violation of law.

In films too dance items are shot, but these can be exposed to general public view only after these have passed through the penetrating eye of the Censor Board. But in the case of dance bars, there can be no restriction as per the latest directions. An incident of vulgar display of indecency, obscenity or nudity in dance bars will thus be more difficult to detect and still more arduous to prove.

In our system of democracy, a person does have a right to privacy but only within the four walls of his house or room in a hotel. This cannot be extended to a public place. Can a person claim right to privacy in a park or at the dance floor of a hotel if he wishes to indulge in with his wife or a consenting partner what he otherwise can in the solitude of his bed room? When a person goes to a public place, he voluntarily chooses to shed his right to privacy and exposes him/herself to the prying eyes of all who may be present there. The court has allowed CCTV cameras only at the entry and exit points of the bars. That means every person visiting these bars shall be identified and recorded at the entry and exit gate of the bars. An advocate for bargirls argued that CCTV cameras at the bars would not just show the dancers, but also the patrons, who might not want to be identified. This in itself presupposes that there is something undesirable that the 'patrons' would not like to be identified. If something obnoxious and undesirable is not being performed in the dance bar, why should the 'patrons' feel shy of being identified?

We have CCTVs at every public place — a road, road-crossing, public park, market place, railway stations, bus stands, public places like Ganga and other river banks where men, women and children take a holy dip. Many big shops, departmental stores, shopping malls, petrol pumps, and other places are under CCTV surveillance. Not only that. Some individuals have CCTV cameras in their private houses where the entry and exit of every individual as also what goes on in the house gets recorded. Does it not violate the privacy of the visitors?

In these circumstances, how can the installation of CCTV at dance bars be a pernicious aggression on the privacy of individuals and not at other places? Right to privacy cannot be exploited as a shield to committing undesirable conduct, behavior and activity at a public place.                                                                                                                                                ***

Tuesday, March 15, 2016

Amendment to President's Address — POLITICS GAINS, NATION LOSES

Amendment to President's Address
POLITICS GAINS, NATION LOSES

By Amba Charan Vashishth

On March 9 the opposition led by Congress succeeded in carrying through its amendment to the Vote of Thanks to the President for his Address to the joint session of Parliament regretting that the President's Address did not support the rights of citizens to contest in panchayat elections, in the backdrop of restrictions imposed in Haryana and Rajasthan. If the objective of was just to score a political point the attempt did succeed. Deliberately or otherwise, however the Congress party glossed over the fact that the constitutional validity of the law passed by the BJP government in Haryana to which Congress referred to while pressing for the amendment, had been upheld by the Supreme Court (SC) of India. The amendment is also, in no way, a binding obligation on the government. In the process, however, it was no gain for the nation.

Earlier, arguing that the amendment could not be moved in Parliament as it was a State subject, Finance Minister Arun Jaitley said:  “If we put this to vote, every State will have the right to move a resolution criticising the decisions made by Parliament.”  Parliamentary Affairs Minister M. Venkaiah Naidu pointed out that the right to contest elections was not a fundamental right, unlike the right to vote. 


 A bench comprising justices J. Chelameswar and Abhay Manohar Sapre in December 2015 had dismissed a plea challenging the Haryana Panchayati Raj (Amendment) Act, 2015, and upheld all the amendments which provided for criteria of minimum essential educational qualification of matriculation for general candidates and Class VIII for women in the general category as well as scheduled caste candidates; they should have a functional toilet at home, not having defaulted in cooperative loans or having outstanding dues on rural domestic electricity connections and not charged by a court for a grave criminal offence to be eligible to contest local body elections.

“It is only education which gives a human being the power to discriminate between right and wrong, good and bad,” the court said while upholding the imposition of specific educational qualifications.

In December 2014, Rajasthan too had brought in the Rajasthan Panchayati Raj (Second Amendment) Ordinance, 2014 providing for a minimum qualification of Class X for contesting the zilla parishad or panchayat samiti polls and Class VIII to contest sarpanch elections.  

It is pertinent to recall that a Cabinet minister in Bihar had recently to be administered oath for a second time because he had failed to read some words correctly. In the second attempt too, he fumbled. He had studied upto XII and his brother, also a minister, had quit class IX.
A news channel recently showed that some candidates contesting Panchayat Pradhan election in UP did not know even the name of the Prime Minister and the President of India.
These incidents once again highlight the need for some minimum educational qualification not just for Panchayatiraj and urban local body institutions but also for our lawmakers both in the State and at the national level. The quality of legislation is determined by the quality of our legislature to usher in a better life for the people. Elected persons need to be able to read, write and understand what is brought before them for consideration and orders.

But, it looks the forces of status quo do not wish to come out of the 20th century ethos to join the present 21stcentury running in its second decade.  They seem bent upon thwarting any attempt at making the process of administration, legislation and justice more relevant to the situation that has changed during the past 68 years.

In the Constituent Assembly Dr. Rajendra Prasad, who later became India's first President, did insist on providing some minimum qualification for legislators but Pandit Jawaharlal Nehru rejected the proposal. Yet, the suggestion remains not unreasonable and illogical. Pandit Nehru was then only trying to be more pragmatic to the situation then prevailing. When the British left India free in 1947, the country had a literacy percentage of just 12. Providing minimum qualifications then would certainly have deprived an overwhelming majority of 88 percent from the opportunity to contest elections. But the literacy situation in the country has gone through a revolutionary upsurge since then. India now commands a literacy percentage of 74.4 in 2011 and it should have improved further by now. 

It is also a fact that members of the Constituent Assembly which framed our Constitution were persons of eminence in their own right despite the fact that at that time there was no essential minimum educational qualification to be a member of the house. So about the council of ministers headed by Pandit Nehru at the Centre and Congress leaders in States at that time.

It is a fallacious assumption and argument to say that the Haryana law, in any way, deprives citizens of their "right to participate in the affairs of the polity of the country" because persons contesting an election to such bodies do not constitute even 0.00001 percent of the total electorate.

Let us also not forget that on August 27, 2014 SC opined that "time has come for Parliament to prescribe some minimum qualifications for Parliamentarians/Legislators as prescribed in other fields". It "recalled the words of the first President, Dr. Rajendra Prasad, in the Constituent Assembly that he would have liked to have some qualifications laid down for Members of Legislatures".

A member of the zila parishad, panchayat samiti, and gram panchayat — as also to State and Central legislatures — should be a literate person able to appreciate and understand the intricacies of law governing Panchayati Raj institutions. Otherwise, he/she will end up a parasite on others unable to do justice either to the office to which he has been elected or to those who elected him.

The executive, legislature and judiciary are the three pillars of democracy. These must be run by literate persons of wisdom, intelligence and merit and not by illiterate and mediocre ones. Some of the ills facing the country owe their origin to the lack of essentials the States of Haryana and Rajasthan have provided. Let us shun away from turning our executive and legislature to be the institutions of the elite or aristocracy and, at the same time, not reduce these to be institutions of mediocrity — a situation the country can afford only at its peril.                                                 ***