Wednesday, September 12, 2012

 हास्य-व्यंग  
नारी अब गृहलक्ष्मी नहीं गृहकर्मी
 
बेटा:   पिताजी।
पिता:   हाँ, बेटा।
बेटा:   पिताजी, अब तक तो मैं बहुत ग़लती करता      आ रहा था। मैं जो कुच्छ भी कमाता था वह सारा का सारा नीला को थमा देता था और अपने पास कुछ भी नहीं रखता था। जब मुझे पैसे की ज़रूरत होती तो मैं नीला से ही मांगता था।
पिता:   इसमें बुरा क्या है? तू ठीक ही तो करता है।        नीला तेरी धर्मपत्नी है, गृहलक्ष्मी, घर 
       की मालिक। वह ही तो सारा घर चलाती है, घर        का प्रबंध करती है। तुझे और मुझे तो कुछ        पता ही नहीं होता। हम मज़े में हैं, निश्चिंत।        हमें और क्या चाहिए?
बेटा:   पर पिताजी, आज मैंने अखबार में पढ़ा कि
       सरकार एक कानून बना रही है कि धर्मपत्नी        को घर के काम के लिए उसे प्रति माह वेतन        देना पड़ेगा। तो मैं नीला को अपनी सारी
       कमाई क्यों दूँ जब मुझे उसे तनख़ाह देनी        है तो?
पिता:   बेटा, तूने ग़लत पढ़ा होगा। सरकार घर
       की मालकिन को घर की नौकरानी बनाने बात        कैसे सोच सकती है? मुझे तो ऐसा नहीं लगता।
बेटा:   पिताजी, मैंने यह समाचार अपनी आँखों से पढ़ा है।
पिता:   बेटा, मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा है।        एक ओर तो सरकार   महिला सशक्तिकरण की बात करती है और दूसरी ओर  
       हमारी गृहलक्ष्मी को हमारी नौकरानी बनाना चाहती है जिसको हम उसके काम के लिए दाम             देंगे। बेटा, नीला तो मेरी बहू ही नहीं बेटी        भी है। हमारे घर के लिए जो वह क़ाम करती है वह तो अमूल्य है। उसको पैसे से नहीं तोला जा   सकता।
बेटा:   पर पिताजी, खबर के अनुसार तो सरकार        इस बारे सोच ही रही है न।
पिता:   तो वह ग़लत सोच रही है। यह तो घर को,       घर-गृहस्थी और परिवार को ही तोड़ देने की       साजिश लगती है।  
बेटा:   पिताजी, सरकार कुछ न कुछ नया करने की       सोचती रहती है। फिर विदेशों में भी कई कुछ    होता रहता और सरकार भी उसके अनुरूप ढलती रहती है यह जताने के लिए कि हम भी जमाने के साथ चलते हैं।
पिता:   तो क्या सरकार हमारे को नासमझ नकलची        बनाना चाहती है? क्या हमें आँख पर पट्टी बांध        कर नकल करनी चाहिए चाहे वह हमारे समाज        के अनुकूल हो या न?
बेटा:   पर पिताजी कई परिवारों में महिलाओं का   
      शोषण भी तो होता है। बहू     को नौकऱानी ही बना दिया जाता है और उसे जेब खर्च तक नहीं दिया जाता। वह पैसे पैसे के लिए             तरसती है।
पिता:  पर यह तो समस्या का समाधान नहीं           कि बहू को घर की नौकरानी बना दिया जाए और वह जो घर के लिए अपना कर्तव्य समझ कर काम करती है उसके लिए उसे पग़ार दी जाए।
बेटा:   इसका अभिप्राय तो यह हुआ कि हर गृहिणी      को उसके काम के अनुसार कम या ज़्यादा        दिहाड़ी मिलेगी।
पिता:   यह तो तभी पता चलेगा जब सरकार कानून        बना देगी।
बेटा:   पिताजी, तब तो हर दूसरे दिन हर घर के        सामने  गृहणीयाँ प्रदर्शन करेंगी, ज़िंदाबाद-       मुर्दाबाद के नारे लगाएँगी और मांग करेंगी        कि उनका वेतन बढ़ाया जाए।
पिता:   फिजूल की बकवास बंद कर। मेरा दिमाग़        मत खराब कर। मुझे ग़ुस्सा आ रहा है।
बेटा:   पिताजी, आप मुझ पर फिजूल ही ग़ुस्सा            हो रहे हैं। यह सब मैं थोड़े कह रहा हूँ। यह       तो सरकार की सोच है। मैं तो केवल आप से चर्चा ही कर रहा हूँ। जैसे सरकार सोच रही है उस से तो ऐसा लगता है कि सरकार पति और परिवार को यह अधिकार भी दे देगी कि अगर वह पत्नी के कार्य से संतुष्ट नहीं हैं तो उसे काम से निकाल सकते हैं। उस हालत में तो पत्नी की छुट्टी करनी ही पड़ेगी जब उस का काम संतोषजनक न हो और परिवार उसे घरेलू काम के लिए पघार देती हो।  
पिता:   तू मेरा सिर मत खा। सरकार से ही जाकर       चर्चा कर।   
 
 

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