Monday, March 4, 2013

आज की फुहार अपने ईश्वर से अटखेलियाँ 06-03-2013


 आज की फुहार                                                                      06-03-2013

अपने ईश्वर से अटखेलियाँ

हिंदू धर्म ही ऐसा धर्म है जिसके अनुयायी आपने ईश्वर से भी अटखेलियां  कर लेते  हैं और अपनेदेवताओं से भी मजाक कर लेते हैं. उनसे हास-परिहास कर लेते हैं. यहाँ है प्रस्तुत ऐसे ही कुछ चुटकले.

इस नीच को स्वर्ग में फेंको


एक व्यक्ति ने सारी उम्र तुक्के ही मारे. कभी किसी को कुछ कह दिया तो किसी को कुछ. अंतिम समय जब यमराज के दूत उसे लेने आए तो उनको उसने पूछा कि तुम्हें किस यमराज ने भेजा है?


"किस का क्या मतलब? यमराज महाराज तो बस एक ही हैं और उन्होनें ही हमें भेजा है", दूतों ने कड़क से कहा. 


"भाई, मेरा मतलब है कि नए यमराज महाराज ने या पुराने ने?" उसने दोहराया.


खीज कर दूतों ने कहा, "महाराज तो नए पुराने कोई नहीं बस एक ही हैं और उन्हों ने भेजा है. तुम चलो हमारे साथ".


"भैय्या, मुझे चलने में कोई इतराज़ नहीं है. मैं तो बस तुम्हारी चिंता कर रहा हूँ कि नये महाराज तुम पर नाराज़ न हो जाएँ कि उन्होंने तो मुझे लाने को कहा ही नहीं और तुम कैसे ले आये? मेरी तो बिनती है कि तुम दोबारा पता कर लो. कहीं बात तुम पर न आ जाये."


दूत घबरा गए कि इस आदमी को यह कैसे पता चल गया. वह वापस चले गए और उन्हों ने यमराज महाराज को सारी बात बता दी. घबराहट में उन्होंने कहा, "महाराज, हमें तो यह समझ नहीं आता कि यह समाचार यहाँ हमें तो पता नहीं पर मृत्युलोक में कैसे पहुँच गया?"


घबराये-घबराये यमराज भगवान विष्णुजी के पास पहुंचे और उनके चरणों में प्रणाम कर पूछा, "हे महाराज, क्या मुझ तुच्छ से कोई गलती हो गयी है क्या?"


हैरान भगवान विष्णुजी ने पूछा, "यमराज, कैसी बात कर रहे हो तुम? मुझे तो समझ नहीं आ रहा."


"महाराज, आपने मेरी जगह नया यमराज क्यों नियुक्त कर दिया?"


"क्या कह रहे हो, यमराज?" भगवान विष्णुजी ने हैरानी में पूछा. "तुम्हें किस ने यह कह दिया?"


फिर भी अपनी घबराहट न छुपाते हुए यमराज ने कहा, "परमपिता, यह समाचार तो मृत्युलोक में भी पहुँच गया है." यमराज ने दूतों द्वारा सुनायी सारी कहानी सुना दी.


भगवान विष्णु घुस्से में आ गए. कड़क कर बोले, "जिस नीच ने यह झूठा समाचार फैलाया है उस नीच को तुरंत मेरे सामने पेश करो."


"जो आज्ञा महाराज" कह कर आश्वस्त हो कर यमराज वापस चले गए और दूतों को उस व्यक्ति को तुरंत लेन का आदेश दे दिया.

जब दूत उसे ले आये तो यमराज ने उसे विष्णु भगवान जी के समक्ष प्रस्तुत किया. भगवान ने पूछा कि बता तूने यह झूठ क्यों बोला?"


उसने गिडगिडाते हुए कागा, "परमेश्वर, मैंने तो सारी उम्र यही काम किया. किसी को कुछ कह दिया, किसी को कुछ. यही मैंने यमदूतों से किया. मुझे क्षमा करदें मेरे ईश्वर."


भगवान विष्णुजी ने कहा, "नहीं. तुझे तो सज़ा ही मिलेगी. इसे नरक में ड़ाल दिया जाये."


"मेरे ईश्वर. आप यह क्या कर रहे हैं? इससे तो आपके नाम पर बट्टा लग जायेगा."


"क्यों?" भगवान ने पूछा.


"महाराज, ऋषि-मुनि तो अनेकों साल आपकी कड़ी तपस्या करते हैं, फिर भी उनको आपके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता. पर फिर भी आप कृपानिधान उन्हें स्वर्ग भेज देते हैं. पर मैंने तो आपके साक्षात् दर्शन कर लिए हैं. फिर भी आप मुझे नर्क भेजेंगे तो आपकी तपस्या कौन करेगा?"


भगवान विष्णुजी ने खीज कर कहा, "इस नीच को स्वर्ग में  फेंक दो".


जा, हनुमानजी की शरण जा!

एक गाँव था जिसमें केवल एक ही जाति के लोग रहते थे. एक दिन गाँव के कुछ बड़े लोग इकट्ठे हुए और कहने लगे कि गाँव के लड़के कुछ भटक रहे हैं इसलिए गाँव में एक मंदिर की स्थापना की जाये ताकि उनका मन ईश्वर व धर्म-कर्म की ओर भी आकर्षित हो. चर्चा के बाद कि किस भगवान का मंदिर बनाया जाये यह फैसला हुआ कि भगवान राम का मंदिर स्थापित किया जाये.

जब मंदिर स्थापित हो गया तो गाँव के बड़ों ने कहा कि मंदिर में तो पुजारी भी रखना पड़ेगा. पर समस्या खड़ी हो गयी कि गाँव में ब्राह्मिण का घर तो कोई है नहीं कि किसी को पुजारी बना दिया जाये. गाँव के बड़ों ने कहा कि अब इस गाँव में पंडित कहाँ से बसाएंगे? इसलिए निर्णय यह हुआ कि अपनी ही जाति के किसी बेरोजगार लड़के को ही पुजारी बना देते हैं.  और बना भी दिया गया.

इस नए पुजारी ने एक दिन देखा कि एक व्यक्ति भगवान राम के मंदिर के आगे नाक रगड-रगड कर कुच्छ प्रार्थना कर रहा है.
पुजारी ने पूछा, "क्या हुआ?"

उसने बताया कि उसकी बीवी उससे नाराज़ हो कर घर से चली गयी है. वह अब प्रार्थना कर रहा है कि भगवान उसे किसी तरह एक बार घर भेज दे, मैं उसे सदा खुश रखूंगा.

पुजारी ने कहा कि यहाँ नाक रगड़ने का कोई फायदा नहीं. उसकी तो अपनी ही पत्नी को हनुमानजी ने ढूँढा था. तू साथ के गाँव में संकट मोचन महावीर जी के मंदिर जा. वह ही तेरा कल्याण करेंगे.

यह विधान ही बदल दो!

नारी शक्ति को जागृत करने वाले और उनके अधिकारों के लिए लड़ने वालों की कभी कमी नहीं रही. एक बार की बात सुनाते हैं कि राज परिवार की कुछ महिलायें इकट्ठी हुईं. वह कहने लगी कि परिवार के सारे दुःख वही क्यों सहें. कुछ पुरुषों को भी सहना चाहिये. वह देवी पार्वतीजी के पास गयीं और अपनी दुःख-व्यथा सुनायी. उन्हों ने कहा कि प्रसव की इतनी भयानक पीड़ा केवल वह ही क्यों सहें. यह पीड़ा पुरुष क्यों न बर्दाश्त करें. उन्हों ने बिनती की कि वह भगवान शिवजी के पास उनकी दुःख गाथा व्यक्त करें और इसका समाधान करने के लिए बिनती करें. उन्हों ने सुझाव दिया कि विधान बदल दिया जाये और प्रसव की पीड़ा पत्नी को न होकर पति को हो.

माँ पार्वतीजी भी उनकी बातों में आ गयीं और उन्हें लेकर भगवान शिवजी के पास चली गयीं. उन्होंने महिलाओं की यह मांग उनके सामने रख दी. भगवान मुस्कराए और बोले, "देवियों, इस विधान को हमने सोच समझ कर ही बनाया है. इसे नहीं बदला जा सकता."

माँ पार्वतीजी के साथ जो महिलाएं साथ आयी थीं वह जिद्द पर अड् गयीं. उन्होंने माँ को ताना दे दिया कि क्या भगवान आपकी इतनी सी मांग भी नहीं मान सकते? माँ पारवती ने भी स्त्री हठ अपना लिया. बोलीं, "आप मेरी इतनी छोटी सी बात भी नहीं मान सकते?"

भगवान ने बड़े शांत भाव से कहा, " पार्वती, जिद्द मत करो. यह विधान बड़ा सोच समझ कर बनाया है. इसे बदलना ठीक नहीं होगा."

"नहीं, महाराज." पार्वती माँ और उनके साथ आयी सारी महिलाओं ने एक साथ मांग की. "आपको हमारी मांग तो माननी ही पड़ेगी."
भगवान उनकी जिद्द के आगे झुक गए. कहा - "ठीक है. अब प्रसव की पीड़ा पति को होगी, पत्नी को नहीं. पर तुम सब पछताओगी."

सब खुशी-खुशी अपने-अपने घर वापस चली गयीं.

अगले ही दिन वह सभी महिलाएं माँ पार्वती को लेकर दौडी-दौडी भगवान शिवजी के पास पहुंचीं और उनके पाँव में गिरकर गिडगिडाने लगीं और बिलख-बिलख कर कहने लगीं, "हमें माफ़ कर दो भगवान. हमारी इज्ज़त बचा लो. पुराना विधान पुनः लागू कर दें, महाराज."

भगवान मुस्कराए, बोले - "तथास्तु".

हुआ यह था कि विधान बदलने पर प्रसव की पीड़ा एक दरबान को शुरू हो गयी थी. 

(किसी ने सुनाया था)





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