Tuesday, October 22, 2013

सोचने योग्‍य बात आओ, 'न' की मानसिकता छोड़ 'हां' की सकारकता अपनायें

सोचने योग्‍य बात
आओ, 'न' की मानसिकता छोड़ 'हां' की सकारकता अपनायें

पता नहीं क्‍या कारण है कि कुछ व्‍यक्ति हर बात में पहले ''न'' ही कहने में विश्‍वास रखते हैं? उनसे कुछ भी पूछिये, वह न ही कहेंगे। वास्‍तव में ऐसे व्‍यक्ति हीन भावना से ग्रस्‍त होते हैं और समझते हैं कि जब वह किसी को कोई बात करने या कहने से रोक देते हैं तो इससे उनकी हीनभावना की तुष्टि हो जाती है और वह समझने लगते हैं कि वह ही बास हैं।
कई बार ऐसा होता है कि पति या पत्नि एक दूसरे को कहें कि आज सिनेमा देख आते हैं तो बहुत से दम्‍पत्तियों में इसी बात पर कहा-सूनी हो जाती है कि एक ने दूसरे की इच्‍छा का सम्‍मान नहीं किया।
इसी प्रकार जब बच्‍चा माता या पिता से सिनेमा जाने, कोई अन्‍य कार्यक्रम देखने या कुछ समय खेल आने की अनुमति मांगता है तो बहुत से मां-बाप अपने अहम् का सिक्‍का जमाने के लिये अकारण ही मना कर देते हैं। इससे उनके अहम् का तुष्‍टीकरण हो जाती है और वह समझते हैं कि इस प्रकार वह अपने बच्‍चों पर पूरा नियन्‍त्रण रख पाने में सक्षम हो रहे हैं।
हर बात पर बिना सोचे-समझे हां कह देना भी उतना ही ग़लत है जितना कि अपने मुंह से 'न' ऐसे बोल बैठना जैसे कि 'सौरी', 'थैंक यू' व 'एक्‍सक्‍यूज़ मी' आदि अंग्रेज़ी के शब्‍द हमारे मुंह से अनायास ही निकल आते हैं।
यदि हम या बच्‍चे आज सिनेमा नहीं देख सकते, या किसी के घर नहीं जा सकते या 'शाप्पिंग' नहीं कर सकते तो उसका कोई ठोस कारण होना चाहिये ताकि जिसे हम 'न' कर रहे हैं उसे बुरा न लगे। उसे ऐसा न लगे कि हम ऐसी ही 'हां' या 'न' कर देते हैं। अकारण ही ऐसा कह देने या कर देने से तो दूसरों के मन में हम अपने प्रति धारणा व छवि को बिगाड़ बैठते हैं। इससे घर में कलह भी खड़ी हो जाती है और मनमुटाव भी पैदा हो जाता है।
सकारात्‍मक ढंग तो यह है कि आप कहें कि आज नहीं सिनेमा कल जायेंगे क्‍योंकि आज अमुक काम है। तुम या तो आज खेलने जाओ मत या फिर थोड़ी देर ही खेलना क्‍योंकि कल तुम्‍हारा टैस्‍ट है। 'शाप्पिंग' के लिये अगले सप्‍ताह चलेंगे क्‍योंकि तब तक मेरा वेतन भी आ जायेगा।
ऐसे शब्‍दों में आपकी सकारात्‍कता व सहजता झलकती है। तब आपकी 'न' चुभती नहीं। तर्क-वितर्क को प्रेरित नहीं करती। इसमें व्‍यक्ति की प्रमाणिकता झलकती है।
मेरे पिताजी इस सन्‍दर्भ में एक कहानी सुनाते थे। वे कहते थे कि एक ऐसी ही महिला थी जो हर बात पर 'न' ही करती थी। उसकी इस आदत से उसका पति बड़ा परेशान रहता था। पर वह भी अपनी आदत से मजबूर थी। पति के पिताजी का श्राद्ध आया। उसे पता था कि वह श्राद्ध करने की बात करेगा तो वह अवश्‍य न करेगी। इसलिये उसने पैंतरा बदला। उसने पत्नि को कहा कि देख, कल मेरे पिताजी का श्राद्ध है पर मैं सोच रहा हूं कि इस बार न करूं। अपनी आदत के मुताबिक पत्नि बोली — क्‍यों? श्राद्ध तो साल में एक बार ही आता है। मैं तो अवश्‍य करूंगी।
मन ही मन पति खुश हो उठा। उसने देखा कि उसका दाव सही पड़ा है। उसने कहा — चलो तुम कहती हो तो ठीक है, पर मैं एक ही ब्राह्मण को बुलाऊंगा।
पत्नि तुरन्‍त बोली — नहीं, मैं तो चार ब्राह्मणों को भोजन करवाऊंगी। तुम चार को निमन्‍त्रण दे दो।
पति बड़ा उत्‍साहित हो उठा। उसने सोचा आज तो श्रीमतिजी बिल्‍कुल ठीक रास्‍ते पर चल रही है जैसाकि वह चाहता था। तो अन्‍त में वह कह बैठा — मैं सोच रहा हूं कि भोजन उपरान्‍त चारों पण्डितों को दस-दस रूपये दक्षिणा दे दूं। अपनी आदत के मुताबिक पत्नि को तो हां कहनी नहीं आती थी। उसने कहा — जब उनको भरपेट भोजन करा देंगे तो दस रूपये दक्षिणा की क्‍या आवश्‍यकता है? मैं तो एक रूपया ही दूंगी।
पति ने अपना माथा ठोका और मन ही मन अपने आपको धिक्‍कारा — यहां तू क्‍यों ग़़लती कर गया? तुझे यहां भी कहना चाहिये था कि दक्षिणा मैं एक रूपया ही दूंगा। तब वह कहती कि नहीं, मैं तो दस रूपये दूंगी।








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