हास्य–व्यंग
कानोंकान नारदजी के
नॉन-वैज हॉय!
शाकाहार हाये-हाये! !
बेटा: पिताजी।
पिता: हां
बेटा।
बेटा: कुछ सरकारों ने त्यौहारों के दिन मांस बेचने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है।
बेटा: कुछ सरकारों ने त्यौहारों के दिन मांस बेचने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है।
पिता: बेटा,
धर्मनिर्पेक्षता का तक़ाजा़ है कि हम एक दूसरे की धार्मिक भावनाओं का सम्मान
करें। इससे सामाजिक तनाव कम होता है और आपसी भाईचारे को बढ़ावा मिलता है।
बेटा: पर पिताजी, कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं। उनका तर्क है
कि यह उनके निजि अधिकारों पर कुठाराघात है, उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन और
जनतन्त्र में निजि स्वतन्त्रता पर कुल्हाड़ी।
पिता: बेटा, देखा जाये तो सभ्यता
का विकास ही मानव के अधिकारों का हनन है। मानव को वास्तविक स्वतन्त्रता तो किसी
भी शासन व्यवस्था में पूरी तरह प्राप्त ही नहीं हुई । ज्यों-ज्यों मानव सभ्यता
का विकास होता गया त्यों-त्यों मानव की स्वतन्त्रता पर अंकुश बढ़ता गया।
बेटा: आपकी बात मुझे समझ नहीं आ रही। ज़रा समझा कर
बोलिये।
पिता: बेटा, प्रारम्भिक जीवन में ही मानव पूर्णतय: स्वतन्त्र
था। उतनी स्वतन्त्रता
उसे किसी
भी सभ्य समाज या बढि़या से बढि़या शासन व्यवस्था में कभी नहीं
मिली।
बेटा: कैसे?
पिता: बेटा, तब न कोई सामाजिक व्यवस्था
थी और न शासक। व्यक्ति अपनी मर्जी़ का मालिक आप था। वह हर बात के लिये स्वतन्त्र
था। यहां तक कि तब न परिवार नाम की कोई चीज़ थी और न कोई रिश्ता। मां, बहन व भाई
को तो न कोई जानता था न पहचानता। यदि कोई रिश्ता था तो बस नर और नारी का। वह जो चाहे
करता था। उसकी करनी, कथनी और वाणी पर न कोई लगाम लगा सकता था और न कोई मानता था।
बेटा: उस समय तो पिताजी सचमुच ही पूर्ण स्वतन्त्रता
थी, उसी तरह जो आजकल जानवरों के पास है
पिता: बेटा, मानव
भी तो एक सामाजिक जानवर व प्राणी ही तो है।
बेटा: पर पिताजी, आज तो मानव ने जानवर अधिकारों
पर भी अंकुश लगाता जा रहा है। वह सब जानवरों को मार लेता है और खा लेता है, मानों
पशुओं को तो जीने का अधिकार ही नहीं है और वह बस मानव का भोजन बनने के लिये ही
पैदा होते और मरते हैं। जानवर के जानवर अधिकारों पर भी अंकुश मानव ने ही लगा रखा
हैं अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये।
पिता: यह तो बेटा तूने बड़ी गूढ़ी बात
कर दी। यह तो सच्चाई है कि मानव दूसरे प्राणियों के मौलिक अधिकारों की धज्जियां तो
उड़ाता है पर जब कोई व्यक्ति या सरकार उसके मानव अधिकारों पर अंकुश लगाना चाहे तो
वह बड़ा बखेड़ा खड़ा कर देता है। जब गोमांस खाने पर प्रतिबन्ध लगता
है या उसकी बात होती है तो यही लोग सैकुलरवाद का नाम लेकर व्यक्तिगत स्वतन्त्रता
का शोर मचाते हैं।
बेटा: पिताजी,
सरकार ने कई पशु-पक्षियों, तीतर, हिरण, काले हिरण, आदि के मारने व उसका मांस खाने
पर प्रतिबन्ध लगा रखा है। कुछ फिल्म अभिनेता तो इस कानून के उल्लंघन के लिये
धरे भी गये हैं। कुछ को सज़ा भी हो गई है। इससे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का उल्लंघन
नहीं होता?
पिता: होता तो है पर यदि यह
प्रतिबन्ध न लगाया जाये तो इन पशुओं-पक्षियों की प्रजातियां ही लुप्त हो जायेंगी।
बेटा: पिताजी, सरकार तो साल में दो
मास के लिये मच्छली पकड़ने पर भी प्रतिबंध लगा देती है। यह भी तो ग़लत है। इससे
भी तो व्यक्ति की स्वतन्त्रता व मानवाधिकारों पर अतिक्रमण होता है।
पिता: बेटा,
यह करना भी अति आवश्यक है क्योंकि उन दो मास में मच्छलियां अण्डे देती
हैं। उन दिनों उसका शिकार करने पर सारा साल ही मच्छली के प्रजनन व उसकी पैदावार
बहुत काम हो जायेगी। इससे मच्छली खाने वालों को ही नुक्सान उठाना पड़ेगा।
बेटा: पिताजी, कुछ भी हो व्यक्ति के मच्छली खाने के मानवाधिकार का हनन तो
हुआ न।
पिता: बेटा, यह तो सहना ही पड़ेगा।
बेटा: पर पिताजी, जंगल में आखेट पर
क्यों प्रतिबन्घ लगा दिया गया है? अपनी मर्जी़ का
शिकार करने और उसे बनाने-खाने का तो मज़ा ही और है। इससे भी तो सरकार व्यक्ति की
स्वतन्त्रता का हनन कर रही है।
पिता: बेटा,
यह तो पर्यावरण की सुरक्षा के लिये अति अनिवार्य है। अन्यथा जंगलों में कई
पशु-पक्षियों की प्रजातियां ही लुप्त हो रही हैं। शेरों व बाघों की संख्या कम
होती जा रही है। प्रतिबन्ध लगाने के फलस्वरूप ही इन जानवरों की संख्या में
वृद्धि हुई है।
बेटा: पिताजी,
आप चाहे सरकार की जितनी भी तर्फदारी कर लो पर एक बात तो है कि सरकार एक के बाद
दूसरा प्रतिबन्ध्ा लगाती जा रही है और व्यक्ति की अपनी मनमर्ज़ी का खाने-पीने
की स्वतन्त्रता लुप्त होती जा रही है। सरकार ने सार्वजनित स्थानों पर
सिगरेट-तम्बाकू पीने पर भी प्रतिबन्ध्ा लगा दिया है। इसी प्रकार सरकार ने व्यक्ति
की ड्रग सेवन की स्वतन्त्रता भी समाप्त कर दी है। लोगों को जेल में डाल रही है।
इस कारण इस व्यवसाय में लगे ग़रीबों की रोज़ी-रोटी छिन रही है।
पिता: तू तो
मुझे महामूर्ख लगता है। तुझे यह भी समझ नहीं आता कि सरकार यह सब जनता की भलाई के
लिये ही कर रही है। तेरे को पता नहीं कि तम्बाकू कैंसर को खुला न्यौता है। भारत
में इस कारण हुये कैंसर से सब से अधिक लोग मौत का शिकार होते हैं।
बेटा: कुछ भी
हो। यह तो व्यक्ति को सोचना है। सरकार क्यों व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर
कुठाराघात कर रही है? व्यक्ति को किसी चीज़ से
फायदा है या नुक्सान यह व्यक्ति ने सोचना है, सरकार ने नहीं।
पिता: मुझे तो
तेरी अक़्ल पर तर्स ही आ रहा है। क्या सरकार लोगों को ऐसे ही मरने दे?
बेटा: यदि कोई
ऐसा कर मरने का प्रबन्ध कर रहा है तो सरकार के पेट में क्यों दर्द हो रहा है? यह तो व्यक्ति की निजि स्वतन्त्रता का मामला है। यदि कोई व्यक्ति
अपनी निजी स्वतन्त्रता की रक्षा की लड़ाई में शहीद होना चाहता है तो सरकार को क्या
परेशानी है?
पिता: तो क्या
सरकार अपनी युवा पीढ़ी को इस प्रकार के व्यस्नों में पड़ने दे और मरने दे?
बेटा: पर
पिताजी, कुछ भी हो। व्यक्तिगत इच्छा व अधिकार भी तो कोई चीज़ है।
पिता: तब तो
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के तेरे जैसे उपासक तो यह भी मांग करने लगेंगे कि हमें
जुआ खेलने, सट्टा लगाने, अनेक शादियां रचाने, कोठों पर जाने आदि सब की खुली छूट
होनी चाहिये। घूसखोर तो घूस को अपना मौलिक अधिकार जताने लगेंगे।
बेटा: पिताजी,
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व मानवाधिकारों को जब सरकारी इतनी बेडि़यों में जकड़ कर
रखेगी तो जनतन्त्र में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का गला ही घुट कर रह जायेगा।
उसमें से आत्मा निकल जायेगी, बस हड्डियों का पिंजर ही बचा रह जायेगा।
पिता: यह सारी
स्वतन्त्रतायें नहीं बेटा, उच्छृंखलायें हैं। यदि यह सब मिल गईं तो स्वतन्त्रता
भी सभ्यता के उदय से पूर्व का जीवन बन कर रह जायेगी।
बेटा: पर पिताजी,
इतना तो आप भी मानेंगे कि जो व्यक्ति रोज़ मांस का सेवन करता है उसके लिये तो दो
दिन उसके बिना रह पाना बड़ा कठिन है ।
पिता: लोग
उपवास नहीं रखते? रोज़े तो पूरा मास चलते हैं।
बेटा: पिताजी,
वह तो और बात है। मैं तो ऐसा नहीं कर सकता।
पिता: मेरे से
अपनी पोल मत खुलवा। जब तू अपनी बीवी से लड़ने के बाद दो-दो दिन खाना नहीं खाता, तो
कैसे चल जाता है? मैं बीच में पड़ कर सुलह-सफाई करवा देता हूं वरन् तेरे को भोजन
के लिये बीवी के पांव पकड़ने पड़ते।
बेटा: पिताजी,
आप तो मेरी पोल सब के सामने ही खोलने बैठ जाते हैं। इतना तो लिहाज़ किया करो कि
मैं आपका बेटा हूं।
पिता: जब तू
फिज़ूल की शेखियां वघारने लगता है, बहस करने लगता है तो फिर मुझे गुस्सा आ जाता
है और मेरे से रहा नहीं जाता।
बेटा: पर पिताजी
आप यह तो मानते हैं कि भारत एक सैकुलर देश है। उसे तो अपने अल्पसंख्यक
भाइयों का भी ध्यान रखना पड़ता है। उन पर तो किसी प्रकार का ऐसा प्रतिबन्ध लगाना
सैकुलरीज़्म के हमारे उच्च सिद्धान्तों की छाती में छुरा घोंपने बराबर है।
पिता: बेटा, इस
मामले को तो कुछ राजनीतिक दल जानबूझ कर इस बात को हवा दे रहे हैं। अल्पसंख्यकों
के कई धार्मिक नेताओं ने तो इस प्रतिबन्ध का स्वागत किया है। आम नागरिक को तो दो
जून की रोटी के ही लाले पड़े रहते हैं। उसे मांस खाने के मौलिक अधिकार की बात
छोड़ो, भरपेट भेजन पाने का ही अधिकार नहीं मिलता।
बेटा: पर जो
खाये बिना नहीं रह सकते उनका भी तो ध्यान रखना होगा।
पिता: इस पर
तो न्यायालय ने भी कह दिया है कि दो दिन के प्रतिबन्ध से कोई फर्क नहीं पड़ता।
फिर बेटा बहुसंख्यकों के भी तो अधिकार हैं। उनकी भी भावनायें हैं। उनका सम्मान
करना और उन्हें ठेस न पहुंचने देना अल्पसंख्यकों का भी तो कर्तव्य बनता है।
इसे ही तो भाईचारा कहते हैं। वस्तुत: अल्पसंख्यकों का भारी बहुमत भाईचारा ही
बनाये रखना चाहता है। मीडिया इस बहाने
अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में है और राजनीति के लोग अपनी चुनावी रोटियां सेकने
के।
बेटा: मांस की इतनी महिमा सुनकर तो पिताजी अब मेरा दिल कर रहा है कि मैं भी
इसे चख ही लूं। मैं जानना चाहता हूं कि आखिर इस में है क्या जो लोग इसके बिना
एक-दो दिन भी नहीं रह सकते।
पिता: नालायक, तेरे को पता है कि मैं शाकाहारी हूं और मांस से नफरत करता हूं।
बेटा: पिताजी, मैं आपको मांस खाने के लिये थोड़े कह रहा हूं। मैं अपनी थाली
में मांस खाऊंगा, आप अपनी थाली में घास-फूस खाइये।
पिता: ज्य़ादा
बकवास मत कर। तू मेरे सामने थाली रखकर मांस खायेगा?
बेटा: पिताजी, यह तो मेरा मानवाधिकार है और स्वतन्त्रता।
पिता: तेरे अधिकार व स्वतन्त्रता की ऐसी तैसी। मैं तुझे घर से निकाल बाहर
फैंक दूंगा।
बेटा: पिताजी,
आप ऐसा नहीं कर सकते। मेरा भी इस घर पर अधिकार है।
पिता: अच्छा,
अधिकार और स्वतन्त्रता तुझ जैसे नालायक की है और मेरा कुछ नहीं?
बेटा: मैं
आपकी इस मनमानी के विरूद्ध अदालत का दरवाज़ा खटखटाऊंगा।
पिता: जा-जा।
तू घर से बाहर तो जा। मैं अपना दरवाज़ा बन्द कर लूंगा। मैं देख लूंगा। तू जा तो
सही।
बेटा: पिताजी,
क्षमा कर दो। मैं तो मज़ाक कर रहा था। आपको तो पता है कि मैं मांस कहां खाता हूं?
पिता: ठीक है,
ठीक है। पर मैं तुझे बता दूं कि मैं मज़ाक नहीं कर रहा था।
***
Courtesy: UdayIndia (Hindi)
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