Sunday, August 21, 2016

हास्य-व्यंग — अभी तो वाशरूम ही रेस्टरूम बना है, आगे-आगे देखिये होता है क्या

हास्य-व्यंग
         कानोंकान नारदजी के

अभी तो वाशरूम ही रेस्टरूम बना है, आगे-आगे देखिये होता है क्या  

 
बेटा:   पिताजी।
पिता:  हांबेटा।
बेटा:   कल मैं बड़ी मुश्किल में फंस गया।
पिता:   क्या हुआ?
बेटा:    मैं एक कार्यक्रम में गया था। मुझे पेशाब आया तो मैंने साथ बैठे एक
       महानुभाव से पूछा कि उन्हें पता है कि बाथरूम कहां है?
पिता:   फिर?
बेटा:   उसने मेरी तरफ इस तरह से देखा जैसे कि मैं किसी और दुनिया से आया हूं। हूं कह कर   उसने मुंह दूसरी ओर फेर लिया।
पिता:   फिर तूने क्या किया?
बेटा:   मुझे पेशाब बड़े ज़ोर से आया था। मैं बाहर निकल गया। बाहर गया तो मुझे एक व्यक्ति दिखाई    दिया जो कोई कर्मचारी ही लगता था। मैंने उससे भी 'बाथरूम कहां हैपूछा। उसने विनम्रता से       कहा, ''यहां बाथरूम नहींरैस्टरूम है''
पिता:   पर तुझे तो पेशाब जाना था।
बेटा:    यही तो मुसीबत थी। मैंने कहा, ''भैय्यामुझे आराम नहीं करनापेशाब जाना है''
पिता:   फिर क्या हुआ?
बेटा:   उसने मुझे घ्यान से देखा और मुस्कराते हुये कहा, ''हांवहीं करिये''। मैं बहुत परेशान हो उठा।      मैंने फिर हैरान होते हुये पूछा, ''रैस्टरूम में पेशाब करूं?'' वह झलझला उठा। बोला, ''हां भई हां। जाओ तो सही''

पिता:   फिर गया तू
बेटा:   हॉंपिताजी मैं गया। मैं हैरान हो गया जब वहां मैंने देखा कि लोग वहॉं आम बाथरूम की तरह     ही पेशाब कर रहे थेहाथमुंह धो रहे थे। हांनेपथ्य में संगीत अवश्य बज रहा था।
 
पिता:  सच?
बेटा:   हां पिताजी।   
पिता:  तो बाथरूम और रैस्टरूम में अन्तर क्या है?
बेटा:   यह तो वह ही जाने।
पिता:  बेटामेरी समझ के मुताबिक तो रैस्टरूम का ​अर्थ तो विश्राम का स्थान है।
बेटा:   तब पिताजीबैडरूम क्या हुआ?
पिता:   मेरी समझ के अनुसार तो बैडरूम में हम सोते और आराम करते हैं।
बेटा:   मैं भी तो यही हैरान हूं। वहां तो कोई आराम नहीं कर रहा था। तो यह रैस्टरूम वाला तमाशा      क्या है?
पिता:   मेरे को तो बेटा समझ नहीं आ रहा कि स्थान तो वही ही है पर उसके नाम बारबार बदलते जा रहे हैं। पहले महाराष्ट्र में इसे सड़ांध कहते थे और अन्य स्थानों पर पेशाबघर।
बेटा:   बाद में पिताजीपहले बाथरूम और फिर जनसुविधायें भी कहा जाने लगा।
पिता:  बेटाएक घटना तो मैं तुझे भी याद करा दूं। तुझे याद है कि कई साल पहले जब तू छोटा था तो   मैं परिवार को शिमला घुमाने ले गया था। शिमला के माल रोड पर हम घूम रहे थे। वहां तूने   देखा कि माल रोड के किनारे बोर्ड लगे थे 'मैन्नऔर दूसरी तरफ 'वीमैन्न'। तब तूने पूछा    ''पिताजीजो तो 'मैन्नकी तरफ जा रहे हैं वह तो मर्द हुये और जो दूसरी ओर जा रहे हैं वह    महिलायेंतो जो हम माल रोड पर घूम रहे हैं वह कौन हैं? मैं निरूत्‍तर हो गया था।
बेटा:   पर पिताजी मेरा भी तो प्रश्‍न कोई गलत था क्‍या?
पिता:  बिलकुल नहीं। यह प्रश्‍न तो स्‍वाभाविक था। यह तो किसी भी जिज्ञासु बच्‍चे के मन में उत्‍पन्‍न     हो सकता है।
बेटा:   पर पिताजी, एक ही चीज़ के नाम बार-बार क्‍यों बदले जाते हैं?
पिता:  शायद इसलिये कि लोगों का विश्‍वास है कि बदलाव ही जीवन है। वह समझते हैं कि कुछ न       कुछ तो बदलता ही रहना चाहिये वरन् जीवन कुछ ठहर गया लगता है।
बेटा:   पर यह बदलते क्‍यों रहते हैं?
पिता:  बेटा, समझ तो मुझे खुद नहीं आता। जब मैं पेशाब करने जा रहा हूं तो मूझे यह कहने में क्‍यो’    शर्म आ जायेगी जब मैं यह कहूं कि मैं पेशाबघर जा रहा हूं?
बेटा:   शायद उन्‍हें पेशाब का नाम लेना अच्‍छा नहीं लगा इसलिये उन्‍होंने इसका नाम बाथरूम बना दिया।
पिता:  बेटा, तो यह सि‍विलाईज्‍़ड लोग क्‍या यह भ्रम पैदा करना चाहते हैं कि वह पेशाब करते ही    नहीं?
बेटा:   यदि उनका अभिप्राय यह था तो वह तो अपना ही मूर्ख बना रहे थे। जब उन्‍होंने यह कहना शुरू    किया कि वह बाथरूम जा रहे हैं तब भी तो उन्‍होंने भ्रम ही पैदा किया। बाथरूम का तो अर्थ   होता है स्नानालय। पर वह स्‍नान तो करते नहीं थे। वह तो पेशाब करने ही जाते थे।
पिता:   यह तो बेटा बड़े आदमियों के चोंचले हैं और कुछ नहीं।
बेटा:    पिताजीएक बार तो मैं बहुत बुरी तरह फंस गया था इस पेशाब और बाथरूम के चक्कर में।      मैं किसी के घर बैठा था। मुझे पेशाब आ गया। मैंने यह सोचकर कि यहां से जल्दी ही निकल   जाऊंगा तो मैंने काफी देर रोके रखा। पर मुझे देर लग गई। जब बहुत देर हो गई तो मुझे पूछना    ही पड़ा कि बाथरूम कहां है। उस व्यक्ति ने एक बन्द दरवाज़े की ओर इशारा कर दिया। मेरा तो     बस पेशाब निकलने की वाला था। मैं दरवाज़ा खोल जब करने ही वाला था तो मैंने देखा कि वह       बाथरूम तो था पर पेशाब के लिये कोई स्थान नहीं था। मैं उल्टे पांव उस व्यक्ति के पास गया   और बताया कि मुझे तो पेशाब जाना है। उसने मुझे दूसरे द्वार की ओर इशारा कर दिया। वहां     पहुंच कर मुझे तसल्ली हुई। मुझे तो ऐसा लग रहा ​था कि पेशाब तो मेरी पैंट में ही निकल      जायेगा। वास्तव में उस महानुभाव ने नहाने के लिये अलग और पेशाब आदि के लिये अलग व्यवस्था कर रखी थी।
पिता:   उसके बाद तो बेटा बाथरूम का नाम वाशरूम बन गया।
बेटा:   पिताजीवाशरूम भी तो बेतुका नाम लगता है।
पिता:   अब तो वाशरूम भी रैस्टरूम बन गया है।
बेटा:   यह तो पिताजी और भी अजीब लगता है। वहां जाकर हम नहायेंगे या फ्रैश होंगे या आराम करेंगे?
पिता:   हो सकता है कि ये बड़े लोग फ्रैश होने को आराम करना ही मानते हों।
बेटा:   तो बैडरूम में हम आराम नहीं करते?
पिता:   बेटाआजकल चीज़ का मतलब ज़रूरी नहीं कि वही हो जो सामने दिखता हो।
बेटा:   यह बात तो ठीक है।
पिता:   अब तो बेटासब कुछ बदल ही रहा है। अब मातापिताचाचाचाचीतायाताईदादादादी     फूफाबुआ कहां रहेअब तो मौमडैडअंकलआंटी बन कर रह गये हैं। लोग कहेंगे ये मेरे     ब्रदरइनलॉसिस्टरइनलॉ हैं। समझ पाना ही मुश्किल है कि वह साला हैं या जीजासाली   हैं या भाबी। वस्तुत: रिश्तों का भी आधुनीकरण व सैकुलीकरण कर दिया गया है।
बेटा:   हां पिताजी अब तो पता ही नहीं चलता कि किसका किसके साथ क्या रिश्ता है। सब सभी को     अपना कज़न बता देते हैं चाहे वह लड़का हो या लड़की।
पिता:  कारण तो बेटा यही है कि हम अपने आपको भारतीय न होकर अंग्रेज़ व पश्चिमी सभ्यता का ही    भागी बताना चाहते हैं।  
बेटा:   मेरे साथ भी एक बार ऐसा ही हुआ। मैं अपने एक दोस्त के घर गया। सलीके से सम्मानपूर्वक मैं   ने उसकी मां को मम्मी न कह कर माताजी कह दिया। बस फिर क्या थावह तो नाराज़ हो   उठीं। कहने लगी कि यह लड़का तो मुझे किसी गांव से आया गंवार लगता है।

पिता:   बेटाहम में तो इतनी हीन भावना आ गई है कि जो पटपट अंग्रेज़ी बोलता हैचाहे ग़लत ही     सहीहमें उसे बड़ा सभ्य व ऊंचा मानते हैं। एक बार मैं श्ताब्दी ट्रेन में जा रहा था। वहां सब को     एक अखबार देते हैं। बांटने वाले ने बिना पूछे ही एक महिला को हिन्दी की अखबार दे दी। वह भड़क उठी। बोली, ''ओयेतू हमारे को हिन्दी वाली समझता हैमुझे अंग्रेज़ी का पेपर दे''
बेटा:   वैसे तो एक बार मैंने भी देखा। अपने आपको यह जताने के लिये कि वह अंग्रेज़ी जानता है और    पढ़ सकता हैएक व्यक्ति कुर्सी पर बैठ कर बड़ी शान से अंग्रेज़ी की अखबार पढ़ रहा था पर   उसने अखबार उल्टी पकड़ रखी थी।
पिता:   जब ढोंग करेंगे तो बेटा ऐसे ही जलूस निकलेगा।

पिता:  वैसे तो बेटा बहुत साल पहले मैंने धर्मयुग में एक कार्टून देखा था जिसमें दो अंग्रेज़ आपस में      बात कर रहे थे। एक कह रहा था कि 1947 में हमने बहुत बड़ी गलती कर दी। भारत छोड़ते     समय यदि हम कह देते कि हम अंग्रेज़ी भाषा को भी अपने साथ इंगलैण्ड ले जा रहे हैं तो    हिन्दोस्तानियों ने हमारे पांव पकड़ कर गिड़गिड़ाना था कि हम अंग्रेज़ी को नहीं जाने देंगेतुम भी       मत जाओ।
बेटाः   वैसे कार्टून में वर्तमान स्थिति में ठीक ही आंका गया लगता है।
पिताः  कुछ भी कहो बेटाहमारी संस्कृति ने विकास तो बहुत किया है। पहले नाई होते थेपंसारीधोबी    बढ़ईकुम्हारसुनार और लोहार और कई कुछ। पर अब तो ढूंढे नहीं मिलते। सब प्रोवीज़न स्टोर  जनरल स्टोरवाशिंग हाउसज्वूलरआयरन स्टोरहेयर कटिंग सैलून और पता नहीं क्या कुछ बन गया है।
बेटाः पिताजीपानवाईनानवाईहलवाई आदि बोलना आज के सन्दर्भ में अच्छा भी नहीं लगता।
पिताः बेटादेखते रहो। आज वाशरूम से रैस्टरूम बन गया है। आगे देखिये होता है क्या।
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Courtesy: UdayIndia (Hindi) weekly 

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