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Tuesday, April 2, 2013

आशीर्वाद का महत्‍व


आशीर्वाद का महत्‍व

महाभारत का एक किस्‍सा याद आता है। कौरवों और पांडवों की सेनायें अपने निर्णायक युद्ध के लिये कुरूक्षेत्र के मैदान में आमने-सामने खड़ी हो चुकी थीं। युद्ध का बिगुल बजने वाला था कि पांडवों के ज्‍येष्‍ठ भाई युधिष्‍ठर अपने रथ से उतरे और सामने युद्ध के लिये तैय्यार कौरवों की ओर प्रस्‍थान करने लगे। सब चकित थे।

दुर्योधन ने फबती कसी, ''वह युद्ध से घबरा गया है और युद्ध से पहले ही क्षमा याचना के लिये हमारी शरण में आ रहा है''।

युधिष्‍ठर पहले अपने कुलगुरू कृपाचार्य के पास गये जो कौरवों की ओर से रणभूमि में खड़े थे। युधिष्‍ठर ने कुलगुरू को प्रणाम किया और उनसे आशार्वाद मांगा। कुलगुरू ने आशीर्वाद दिया, ''विजयी भव।''

उसके बाद युधिष्‍ठर अपने गुरू द्रोणाचार्य के पास गये। उनके पांव छू कर उनसे भी आशीर्वाद की याचना की। द्रोणाचार्य से भी उन्‍हें ''विजयी भव'' का ही आशीर्वाद मिला। द्रोणाचार्य ने आगे कहा, ''युधिष्‍ठर, अपने कनिष्‍ठ भाई अर्जुन को मेरा सन्‍देश देना कि जब युद्ध में मेरे पर बाण चलाये तो वह तनिक भी विचलित न हो कि मैं उसका गुरू हूं। मुझ पर वह बाण ऐसे चलाये जैसे कि मैं उसका घोर शत्रु हूं और मुझे मारना उसका परम कर्तव्‍य है। वरन् मैं समझूंगा कि अर्जुन को दी गई मेरी शिक्षा-दीक्षा में मुझ से कुछ कमी रह गई है''।

''जो आज्ञा, गुरूदेव'' कह कर युधिष्‍ठर भीषम पितामह की ओर बढ़ गये।

इसी बीच दुर्योधन दोनों गुरूओं के युधिष्‍ठर को दिये गये आशीर्वाद से जल-भुन रहा था।

युधिष्‍ठर ने पितामह का चरणस्‍पर्श किया और आशीर्वाद मांगा। पितामह ने भावविभोर होकर युधिष्‍ठर के सिर पर हाथ रखा और कहा, ''पुत्र, विजयी भव।''

यह देख और सुनकर दुर्योधन आगबबूला हो उठा। गुस्‍से में जलते हुये बोला, ''मैं तो युद्ध आरम्‍भ होने से पहले ही हार गया जब मेरे दोनों गुरूओं व मेरे प्रधान सेनापति ने मेरे शत्रु को विजयी भव का आशार्वाद दे दिया।'' भीषमपितामह कौरवों के प्रधान सेनापति थे।

यह सुन पितामह बोले, ''पुत्र दुर्योधन, यह अहम् ही तेरा सब से बड़ा शत्रु है। युधिष्‍ठर भी तेरा बड़ा भाई ही है। उसका आशार्वाद प्राप्‍त करना भी तेरा धर्म था। यदि तू भी उसके चरणस्‍पर्श करता तो युधिष्‍ठर का हाथ भी अपने आप ही उठकर तेरे सिर पर होता और वह भी तुम्‍हें आशीर्वाद ही देता।''