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Saturday, September 26, 2015

''मैं संत कैसे बना?''

विडम्‍बना आसाराम बापू के सन्‍देश की
''मैं संत कैसे बना?''

पिछले कल आसाराम बापू जी की सन्‍तवाणी की एक पुस्तिका ''कर्म का अकाट्य सिद्धान्‍त'' मेरे हाथ लग गया। पढ़ते-पढ़ते मैं उनके ''मैं संत कैसे बना?'' व्‍याख्‍यान तक पहुंच गया। आज उसे पढ़कर तो उनके व्‍याख्‍यान में बड़ी विडम्‍बना लगी। आप भी पढि़ये तो आपको पता चल जायेगा। मैं उस प्रवचन को नीचे शब्‍दश: उद्ध्‍ृत कर रहा हूं।
''मैं संत कैसे बना?''

सखर (पा‍किस्‍तान) में साधुबेला नामक एक आश्रम था। रमेशचंद्र नाम के आदमी को उस समय के एक संत ने अपनी जीवन-कथा सुनायी थी और कहा था कि मेरी यह कथा सब लोगों को सुनाना। मैं संत कैसे बना – यह समाज को ज़ाहिर करना। वह रमेशचन्‍द्र बाद में पाकिस्‍तान छोड़कर मुंबई आ गया। उस संत ने अपनी कहानी उसे बताते हुए कहा था:
''जब मैं गृहस्‍थ था तब मेरे दिन कठिनाई से बीत रहे थे। मेरे पास पैसे नहीं थे। एक मित्र ने अपनी पूँजी लगाकर रूई का धंधा शुरू किया और मुझे अपना हिस्‍सेदार बनाया। हम रूई खरीद कर उसका संग्रह करते और मुंबई में बेच देते। धंधे में अच्‍दा मुनाफा होने लगा।
एक बार हम दोनों मित्रों को वहां के एक व्‍यापारी ने मुनाफे के एक लाख रूपये के लिये बुलाया। रूपये लेकर हम वापस आ रहे थे। रास्‍ते में एक सराय में रात्रि गुज़ारने के लिये हम रूके। आज से साठ-सत्‍तर वर्ष पहले की बात है। उस समय का एक लाख जब सोना साठ-सत्‍तर रूपये तोला था। मैंने सोचा: 'एक लाख में से पचास हज़ार तो मित्र ले जायेगा'। हालांकि धंधे में सारी पूंजि उसी ने लगाई थी फिर भी मुझे मित्र के नाते आधा हिस्‍सा दे रहा था, तो भी मेरी नियत बिगड़ी। मैंने उसे दूध में ज़हर मिला कर पिला दिया। लाश को ठिकाने लगाकर अपने गांव चला गया। मित्र के कुटुम्‍बी मेरे पास आये तब मैंने नाटक किया, आंसू बहाये और उनको दस हज़ार रूपये देते हुये कहा कि ''मेरा प्‍यारा मित्र रास्‍ते में बीमार हो गया, एकाएक पेट दुखने लगा, काफी इलाज किये लेकिन.....वह हम सबको छोड़कर विदा हो गया।'' दस हज़ार रूपये देखकर उन्‍हें लगा कि 'यह बड़ा ईमानदार है। बीस  हज़ार मुनाफा हुआ होगा उसमें से दस हज़ार दे रहा है।' उन्‍हें मेरी बात पर यकीन आ गया।
  बाद में तो मेरे घर में धन-वैभव हो गया। नब्‍बे हज़ार मेरे हिस्‍से में आ गये थे। मैं जलसा करने लगा। मेरे घर पुत्र का जन्‍म हुआ। मेरे आनंद का ठिकाना न रहा। बेटा कुछ बड़ा हुआ कि वह किसी असाध्‍य रोग से ग्रस्‍त हो गया। रोग ऐसा था कि उसे स्‍वस्‍थ करने में भारत के किसी डाक्‍टर का बस न चला। मैं अपने लाडले को स्विट्ज़रलैंड ले गया। काफी इलाज करवाये, पानी की तरह पैसा खर्च किया, बड़े-बड़े डाक्‍टरों को दिखाया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। मेरा करीब्‍-करीब सारा धन नष्‍ट हो गया। और धन कमाया वह भी खर्च को गया। आखिर निराश होकर बच्‍चे को भारत में वापस ले आया। मेरा इकलौता बेटा। अब कोई उपयाय नहीं बचा था। डाक्‍टर, वैद्य, हकीमों के इलाज चालू रखे। रात्रि को मुझे नींद नहीं आती और बेटा दर्द से चिल्‍लाता रहता।
     एक दिन बेटा मूर्छित-सा पड़ा था। उसे देखते-देखते मैं बहुत ब्‍याकुल हो गया और विह्वल होकर उससे पूछा: ''बेटा। तू क्‍यों दिनोंदिन क्षीण होता चला जा रहा है? अब तेरे लिये मैं क्‍या करूं? मेरे लाडले लाल। तेरा यह बाप आंसू बहाता है। अब तो अच्‍छा हो जा, पुत्र।''
    मैंने नाभि से आवाज़ देकर बेटे को पुकारा तो वह हंसने लगा। मुझे आश्‍चर्य हुआ कि अभी तो बेहोश था, फिर कैसे हंसी आई? मैंने उससे पूछा: ''बेटा। एकाएक कैसे हंस रहा है?''
    ''जाने दो.....''
''नहीं, नहीं....बता क्‍यों हंस रहा है?''
आग्रह करने पर आखिर वह कहने लगा: ''अभी लेना बाकी है, इसलिये मैं हंस रहा हूं। मैं तुम्‍हारा वही मित्र हूं जिसे तुमने ज़हर देकर मुंबई की धर्मशाला में खत्‍म कर दिया था और उसका सारा धन हड़प लिया था। मेरा वह धन और उसका सूद वसूल करने मैं वसूल करने आया हूं। काफी हिसाब पूरा हो गया है, केवल पॉंच सौ रूपये बाकी हैं। अब मैं आपको छुट्टी देता हूं। आप भी मुझे इजाज़त दो। ये बाकी के पॉंच सौ रूपये मेरी उत्‍तर-क्रिया में खर्च डालना, हिसाब पूरा हो जायेगा। मैं जाता हूं,....राम-राम्...'' और बेटे ने ऑंखें मूँद लीं, उसी क्षण वह चल बसा।
मेरे दोनों गालों पर थप्‍पड़ पड़ चुका था। सारा धन नष्‍ट हो गया और बेटा भी चला गया। मुझे अपने किये हुये पाप की याद आयी तो कलेजा छटपटाने लगा। जब कोई हमारे कर्म नहीं देखता है तब भी देखनेवाला मौजूद है। यहां की सरकार अपराधी को शायद नहीं पकड़ेगी तो भी ऊपरवाली सरकार तो है ही। उसकी नज़रों से कोई बच नहीं सकता।
    मैंने बेटे की उत्‍तर-क्रिया करवाई। अपनी बची-खुची संपत्ति अच्‍छी– अच्‍छी जगहों में लगा दी और मैं साधु बन गया। आप कृपा करके मेरी यह बात लोगों को कहना। मैंने जो भूल की ऐसी भूल वे न करें क्‍योंकि यह पुथ्‍वी कर्मभूमि है।''
करम प्रधान बिस्‍व करि राखा। जो जस करइ सो तक फलु चाखा ।।
कर्म का सिद्धांत अकाट्य है। जैसे कांटे से कांटा निकलता है ऐसे ही अच्‍छे कर्मों से बुरे कमोंच्‍छे त र र्म नहीं देखता है तब  का प्रायश्चित होता है। सबसे अच्‍छा कर्म है जीवनदाता परब्रह्म परमात्‍मा को सर्वथा समर्पित हो जाना। पूर्व काल में कैसे भी बुरे कर्म हो गये हों, उन कर्मोंका प्रायश्चित कर के फिर से ऐसी गलती न हो जाये ऐसा दृढ़ संकल्‍प करना चाहिये। जिसके प्रति बुरे कर्म हो गये हों उससे क्षमायाचना करके, अपना अंत:करण उज्‍ज्‍वल करके मौत से पहले जीवनदाता से मुलाकात कर लेनी चाहिए।
    भगवान् श्रीकृष्‍ण कहते हैं:
अपि चेत्‍सुदुराचारो भजते मामनन्‍यभाक् ।
साधुरेव स मन्‍तव्‍य: सम्‍यग्‍व्‍यवसितो हि स: ।।
'यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्‍यभाव से मेरा भक्‍त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्‍य है, क्‍योंकि वह यथार्थ निश्‍चयवाला है अर्थात् उसने भलीभॉंति निश्‍चय कर लिया है कि परमेश्‍वर के भजन के समान अन्‍य कुछ भी नहीं है।'
(गीता: 9.30)
तथा
अपि चेदसि पापेभ्‍य: पापकृत्‍तम:
सर्वं ज्ञानप्‍लवेनैव बृजिनं संतरिष्‍यसि ।।
'यदि तू अन्‍य सब पापियों से भी अधिक पाप करनेवाला है, तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा नि:संदेह सम्‍पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभॉंति तर जायेगा।'                                 (गीता: 4.36)
अब निष्‍कर्ष आपके हाथ है।